पापमोचनी एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Papmochani Ekadashi 2019 | Paapmochani Vrat Katha in Hindi #EkadashiVrat
वैदिक विधान कहता हैं की, दशमी
को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना चाहिए।
सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती हैं।
प्रत्येक एकादशी का भिन्न भिन्न महत्व होता हैं तथा प्रत्येक एकादशीयों की एक
पौराणिक कथा भी होती हैं। एकादशियों को वास्तव में मोक्षदायिनी माना गया हैं।
भगवान श्रीविष्णु जी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई हैं चाहे वह कृष्ण पक्ष की
हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले प्रत्येक भक्तों पर
प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती हैं, अतः प्रत्येक
एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करते
हैं तथा व्रत रखते हैं, साथ ही रात्री जागरण भी करते हैं।
किन्तु इन प्रत्येक एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी हैं
जिस एकादशी का व्रत साधक को उसके प्रत्येक पापों से मुक्त कर, उसके लिये मोक्ष के मार्ग खोल
देती हैं। अतः चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि पर
किया जाने वाला व्रत पाप मोचनी एकादशी व्रत के नाम से जाना जाता हैं। इस एकादशी के
दिन भगवान विष्णुजी के चतुर्भुज रूप का पूजन सम्पूर्ण विधि-विधान के अनुसार करने
पर व्रत के शुभ फलों में अति वृद्धि होती हैं। पापमोचनी एकादशी के महात्म्य के
श्रवण व पठन करने मात्र से समस्त पाप एवं संकट नष्ट हो जाते हैं। पौराणिक
मान्यताओं के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तिथि
मानी गई हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्णजी ने इसके फल एवं महत्व को कुंतीपुत्र के
समक्ष प्रस्तुत किया था। पापमोचनी एकादशी का अर्थ पाप को नष्ट करने वाली एकादशी
होता हैं। अतः पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से मनुष्य के प्रत्येक पाप नष्ट हो जाते
हैं। इस एकादशी की कथा के श्रवण तथा पठन मात्र से एक हजार गौदान करने का फल
प्राप्त होता हैं। इस पावन व्रत को निष्ठापूर्वक करने से ब्रह्महत्या करने वाले, अगम्या गमन करने वाले, स्वर्ण चुराने वाले, मद्यपान करने वाले जैसे अनेक भयंकर पाप भी नष्ट किए जा सकते हैं तथा अन्त
में स्वर्गलोक की प्राप्ति होती हैं।
पापमोचनी एकादशी का व्रत कब किया जाता हैं?
पापमोचनी एकादशी एकादशी होलिका दहन तथा
चैत्र नवरात्रि के मध्य में आती हैं तथा यह एकादशी संवत वर्ष की अंतिम एकादशी हैं
तथा युगादी से पहले आती हैं।
सनातन हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार पापमोचनी
एकादशी का व्रत सम्पूर्ण उत्तरी भारत-वर्ष में पूर्णिमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष के एकादशी के दिन किया जाता हैं। साथ ही गुजरात,
महाराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार यह व्रत फाल्गुन मास के
कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन आता हैं। वहीं, अङ्ग्रेज़ी
कलेंडर के अनुसार यह व्रत मार्च या अप्रैल के महीने में आता हैं।
पापमोचनी एकादशी व्रत का महत्व
पापमोचनी एकादशी का अर्थ पाप को नष्ट
करने वाली एकादशी होता हैं। अतः पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से मनुष्य के प्रत्येक
पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट हैं इस व्रत को करने से
ब्रह्महत्या,
स्वर्णचोरी, मद्यपान, अहिंसा,
अगम्यागमन, भ्रूणहत्या जैसे अनेकानेक घोर
पापों के दोषों से मुक्ति प्राप्त हो जाती हैं। एकादशी का नियमित व्रत रखने से मन
कि चंचलता समाप्त होती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की
एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तिथि मानी गई हैं। अतः इस दिवस उपवास करने से
पापों का नाश तो होता ही हैं साथ में धन की प्राप्ति भी होती हैं। साथ ही, जातक का शरीर भी आरोग्यमय रहता हैं तथा मनोरोग नहीं होते। पापमोचनी
एकादशी का व्रत आरोग्य, संतान प्राप्ति तथा प्रायश्चित के
लिए भी किया जाता हैं। इस दिन ग्रहों को शांत करने के उपाय भी अत्यंत कारगर सिद्ध होते
हैं। इस उपवास के करने से ब्रह्म हत्या करने वाले, स्वर्ण
चुराने वाले, मद्यपान करने वाले, अगम्या
गमन करने वाले आदि भयंकर पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अन्त में स्वर्गलोक की
प्राप्ति होती हैं।
पद्मपुराणके उत्तरखण्ड में एकादशी के व्रत के महत्व
को पूर्ण रुप से बताया गया हैं। पापमोचनी एकादशी के व्रत से जातक को प्रत्येक
कार्य में सफलता प्राप्त होती हैं साथ ही जातक को पूर्वजन्म से प्रारम्भ कर
वर्तमान के जन्म तक प्रत्येक पापों से मुक्ति प्राप्त होती हैं। इस पावन व्रत का
वर्णन स्कन्द पुराण में अति सुन्दर रूप से वर्णित हैं। पापमोचनी एकादशी का व्रत
सनातन धर्म में अति उत्तम माना गया हैं। पापमोचनी एकदशी का व्रत रखने से जातक को
अपनी समस्त इच्छाओं तथा स्वप्नों को पूर्ण करने में सहायता प्राप्त होती हैं। पौराणिक
मान्यताओं के अनुसार जो जातक एकादशी का व्रत नियमित रखते हैं उन्हे भगवान् श्री नारायण
की विशेष कृपा निरंतर प्राप्त होती रहती हैं। “ब्रह्मांड पुराण” में
पापमोचनी एकदशी का दिन एक ऐसे व्रत के रूप में वर्णित हैं की, जिस दिन व्रत रखने से समस्त दुःखों की समाप्ति होती हैं तथा भाग्य शीघ्र
उदित हो जाता हैं। हिन्दू धर्मानुसार इस व्रत के पुण्य से मनुष्य के प्रत्येक पाप
नष्ट हो जाते हैं। पद्मपुराण में कहा गया हैं कि युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान
श्रीकृष्ण जी ने स्वयं बताया हैं की एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए
अनिवार्य हैं। एकादशी के दिन सूर्य तथा अन्य ग्रह अपनी स्थिती में परिवर्तित होते
हैं, जिसका प्रत्येक मनुष्य की इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता
हैं। इन विपरीत प्रभाव में संतुलन बनाने हेतु व्रत किया जाता हैं। व्रत तथा ध्यान
ही मनुष्यो में संतुलित रहने का गुण विकसित करते हैं। पापमोचनी एकादशी के महत्व का
वर्णन “ब्रह्मवैवर्त पुराण” में भी
प्राप्त होता हैं, तथा इस एकादशी को मेरूपर्वत के समान जो
बड़े-बड़े पाप हैं उनसे मुक्ति प्राप्त करने हेतु सर्वाधिक आवश्यक माना गया हैं।
उन समस्त पाप-कर्मो को यह पापनाशिनी पापमोचनी एकादशी एक ही उपवास में भस्म कर देती
हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति
निर्जल संकल्प लेकर पापमोचनी एकादशी व्रत रखता हैं, उसे
मोक्ष के साथ भगवान विष्णु की प्राप्ति होती हैं। पूर्ण श्रद्धा-भाव से यह व्रत
करने से जाने-अनजाने में किये जातक के समस्त पाप क्षमा होते हैं, तथा उसे मुक्ति प्राप्त होती हैं। श्रीकृष्ण जी आगे बताते हैं कि इस दिवस
दान का विशेष महत्व होता हैं। जातक यदि अपनी इच्छा से अनाज, जूते-चप्पल,
छाता, कपड़े, पशु या सोना
का दान करता हैं, तो इस व्रत का फल उसे पूर्णतः प्राप्त होता
हैं। अतः पापमोचनी एकादशी व्रत के दिवस यथासंभव दान व दक्षिणा देनी चाहिए। जो जातक
पापमोचनी एकादशी का सच्ची श्रद्धा-भाव से व्रत करते हैं,
उनके पितर नरक के दु:खों से मुक्त हो कर भगवान विष्णु के परम धाम अर्थात विष्णुलोक
को चले जाते हैं। साथ ही जातक को सांसारिक जीवन में सुख शांति, ऐश्वर्य, धन-सम्पदा तथा अच्छा परिवार प्राप्त होता
हैं। जो मनुष्य जीवन-पर्यन्त एकादशी को उपवास करता हैं, वह
मरणोपरांत वैकुण्ठ जाता हैं। श्रीकृष्ण जी यह भी बताते हैं कि इस व्रत के प्रभाव
से जातक को मृत्यु के पश्चात नरक में जाकर यमराज के दर्शन कदापि नहीं होते हैं,
किन्तु सीधे स्वर्ग का मार्ग खुलता हैं। जो मनुष्य पापमोचनी एकादशी
का व्रत रखता हैं, उसे अच्छा स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, सम्पति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता हैं।
विष्णु जी के भक्तो के लिए, इस एकादशी का विशेष महत्व हैं।
जो जातक पापमोचनी एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु की कथा का श्रवण करता हैं,
उसे सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता
हैं। इस दिवस उपवास रखने से पुण्य फलों की प्राप्ति होती हैं, साथ ही व्रत के प्रभाव से जातक का शरीर भी स्वस्थ रहता हैं। जो व्यक्ति
पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या-काल में एकाहार
अर्थात एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने का विधान हैं। एकादशी में अन्न का सेवन
करने से पुण्य का नाश होता हैं तथा भारी दोष लगता हैं। एकादशी-माहात्म्य को सुनने
मात्र से सहस्र गोदानोंका पुण्यफल प्राप्त होता हैं। पौराणिक ग्रंथो के अनुसार
एकादशी का व्रत जीवों के परम लक्ष्य, भगवद-भक्ति को प्राप्त
करने में सहायक माना गया हैं। अतः एकादशी का दिन प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से भक्ति
करने के लिए अति शुभकारी तथा फलदायक हैं। इस दिवस जातक अपनी इच्छाओं से मुक्त हो
कर यदि शुद्ध चित्त से प्रभु की पूर्ण-भक्ति से सेवा करता हैं तो वह अवश्य ही
प्रभु की कृपा के पात्र बनता हैं। पापमोचनी एकादशी व्रत की कथा सुनने, सुनाने तथा पढने मात्र से 100 गायो के दान के तुल्य पुण्य-फलो की
प्राप्ति होती हैं। अतः पापमोचनी एकादशी मुक्तिदायिनी होने के साथ ही समस्त
मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली मानी जाती हैं।
पापमोचनी एकादशी व्रत पूजन सामग्री
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भगवान के लिए पीला वस्त्र
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श्री विष्णु जी की मूर्ति
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शालिग्राम भगवान की मूर्ति
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पुष्प तथा पुष्पमाला
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नारियल तथा सुपारी
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धूप, दीप तथा घी
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पंचामृत (दूध (कच्चा दूध), दही, घी, शहद तथा शक्कर का मिश्रण)
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अक्षत
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तुलसी पत्र
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चंदन
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कलश
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प्रसाद के लिए मिष्ठान तथा ऋतुफल
पापमोचनी एकादशी व्रत की पूजा विधि
पाप मोचनी एकादशी के विषय में भविष्योत्तर पुराण में
विस्तार से वर्णन किया गया हैं। इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा
की जाती हैं।
एकादशी का व्रत रखने वाले भक्तो को अपना
मन शांत एवं स्थिर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की द्वेष-भावना या क्रोध को मन में
नहीं लाना चाहिए। इस दिन विशेष रूप से व्रती को बुरे कर्म करने वाले, पापी
तथा दुष्ट व्यक्तियों की संगत से बचना चाहिये। परनिंदा से बचना चाहिए तथा इस दिन
कम से कम बोलना चाहिए, जिस से मुख से कोई गलत बात ना निकल
पाये। तथापि यदि जाने-अंजाने कोई भूल हो जाए, तो उसके लिये
भगवान श्री हरि से क्षमा मांगते रहना चाहिए।
प्रत्येक एकादशी व्रत का विधान स्वयं
श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा हैं। व्रत की विधि बताते हुए श्रीकृष्ण जी कहते
हैं कि एकादशी व्रतों के नियमों का पालन दशमी तिथि से ही प्रारम्भ किया जाता हैं, अतः
दशमी तिथि के दिन में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए तथा साँयकाल में सूर्यास्त के
पश्चात भोजन नहीं करना चाहिए एवं रात्रि में भोग विलास को त्याग कर एवं पूर्ण
ब्रह्मचर्य का पालन तथा नारायण की छवि मन में बसाए हुए,
भगवान का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए। दशमी के दिन से ही,
चावल, उरद, चना,
मूंग, जौ, मसूर,
लहसुन, शराब तथा अन्य नशीली चीजो का सेवन नहीं करना चाहिए।
अगले दिन अर्थात एकादशी व्रत के दिन प्रातः
काल सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से पवित्र होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूजा-घर को शुद्ध कर लेना
चाहिए। इसके पश्चात आसन पर बैठकर व्रत संकल्प लेना चाहिए कि “मैं आज समस्त भोगों को त्याग कर, निराहार एकादशी का
व्रत करुंगा, हे प्रभु मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा करें। तथा मेरे समस्त पाप क्षमाँ करे।” संकल्प लेने के पश्चात कलश स्थापना की जाती हैं तथा उसके ऊपर भगवान
श्रीविष्णु जी की मूर्ति या प्रतिमा रखी जाती हैं। उसके पश्चात शालिग्राम भगवान को
पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए एवं पुष्प तथा ऋतु फल का भोग लगायें तथा
शालिग्राम पर तुलसी-पत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। उसके पश्चात धूप, दीप, गंध, कमल अथवा वैजयन्ती
पुष्प, गंगा जल, पंचामृत, नैवेद्य, मिठाई, नारियल, सुपारी, सुंदर आंवला, बेर, अनार, आम आदि जैसे ऋतु-फल से भगवान विष्णु का पूजन
करने का विधान हैं। अतः भगवान लक्ष्मी नारायण जी की विधिवत पूजन-आरती करनी चाहिए।
साथ ही, धन प्राप्ति तथा आर्थिक समृद्धि के लिए पापमोचनी
एकादशी के दिन माँ लक्ष्मीजी की भी पूजा करनी चाहिए। प्रसाद के रूप में पंचामृत का
समस्त श्रद्धालुओ में वितरण करना चाहिए। इस दिन श्रीखंड चंदन अथवा सफ़ेद चन्दन या
गोपी चन्दन मस्तक पर लगाकर पूजन करना चाहिए।
व्रत के दिन अन्न वर्जित हैं। अतः
निराहार रहें तथा सध्याकाल में पूजा के पश्चात चाहें तो फलाहार कर सकते हैं। फल
तथा दूध खा कर एवं सम्पूर्ण दिवस चावल तथा अन्य अनाज ना खा कर आंशिक व्रत रखा जा
सकता हैं। यदि आप किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं तो भी एकादशी के दिन चावल का
प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए तथा इस दिन आप दान करके पुन्य प्राप्त कर सकते
हैं।
एकादशी के व्रत में रात्रि जागरण का अधिक
महत्व हैं। कहा गया हैं की, जो भक्तजन एकादशी की रात्रि
में जागरण एवं भजन कीर्तन करते हैं उन्हें श्रेष्ठ यज्ञों से जो पुण्य प्राप्त
होता उससे कई गुना अधिक पुण्य फलो की प्राप्ति होती हैं। अतः संभव हो तो रात्रि
में जगकर भगवान का भजन कीर्तन अवश्य करना चाहिए। एकादशी के दिन भगवान विष्णु का
स्मरण कर विष्णु-सहस्रनाम का पाठ करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा-दृष्टि
प्राप्त होती हैं। इस दिन पापमोचनी एकादशी व्रत की कथा अवश्य पढनी, सुननी
तथा सुनानी चाहिए।
व्रत के अगले दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर
सवेरा होने पर पुन: स्नान करने के पश्चात श्रीविष्णु भगवान की पूजा तथा आरती करनी
चाहिए। उसके पश्चात सही मुहूर्त में व्रत का पारण करना चाहिए, साथ ही
ब्राह्मण-भोज करवाने के पश्चात योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण को अन्न का दान तथा
यथा-संभव सोना, तिल, भूमि, गौ, फल, छाता, जनेऊ या धोती दक्षिणा के रूप में देकर, उनका
आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा उपस्थित श्रद्धालुओ में प्रसाद वितरित करने के
पश्चात स्वयं मौन रह कर, भोजन ग्रहण करना चाहिए।
पापमोचनी एकादशी व्रत का पारण
एकादशी
के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब तक
पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण ना किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिवस सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता
हैं।
ध्यान रहे,
१- एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व
करना अति आवश्यक हैं।
२- यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो
एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही करना चाहिए।
३- द्वादशी तिथि के भीतर पारण ना करना
पाप करने के समान माना गया हैं।
४- एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५- व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल का होता
हैं।
६- व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान
के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७- जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें
व्रत समाप्त करने से पूर्व हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए।
हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती हैं।
८- यदि जातक, कुछ कारणों से प्रातःकाल
पारण करने में सक्षम नहीं हैं, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण
करना चाहिए।
पापमोचनी एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण
से परम पुण्यकारी पापमोचनी एकादशी के विषय पर पूछे जाने पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण
ने युधिष्ठिर को पापमोचनी एकादशी की कथा सुनाई थी। उन्होंने बताया कि, “हे कुंती पुत्र! में तुम्हें पापमोचनी एकादशी की कथा सुनता
हूँ। पापमोचनी एकादशी की कथा को पढ़ने, सुनने अथवा सुनाने मात्र से ही समस्त प्राणी को राजसूय यज्ञ के समान फल
प्राप्त होता हैं। अतः तुम यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो-”
भगवान श्री कृष्ण जी ने आगे कहा की, “सुनो राजेन्द्र!
में वह कथा सुनाता हूँ जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर स्वयं महर्षि
लोमेशजी ने काही थी।”
लोमेश जी कहने लगे की, –
“हे नृपश्रेष्ठ! प्राचीन काल में चैत्ररथ नामक वन था। अप्सराएँ
किन्नरों के साथ विहार किया करती थीं। चैत्ररथ वन से सुंदर अन्य कोई वन न था। वहाँ
सदैव वसन्त का मौसम रहता था, अर्थात उस स्थान पर सदा नाना
प्रकार के पुष्प खिले रहते थे। कभी गन्धर्व कन्याएँ विहार किया करती थीं, कभी देवेन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे।
उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी
तपस्या में लीन रहते थे। वे प्रचंड शिवभक्त थे। एक दिन मंजुघोषा नामक एक अप्सरा ने
उनको मोहित कर उनकी निकटता का लाभ उठाने की चेष्टा की, अतः वह
कुछ दूरी पर बैठ वीणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी। उसी समय शिव भक्त महर्षि
मेधावी को कामदेव भी जीतने का प्रयास करने लगे। कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के
भ्रू का धनुष बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यन्चा बनाई तथा उसके नेत्रों को मंजुघोषा
अप्सरा का सेनापति बनाया। इस प्रकार कामदेव अपने शत्रुभक्त को जीतने को तैयार हुआ।
उस समय महर्षि मेधावी भी युवावस्था में थे तथा अत्यंत हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने
यज्ञोपवीत तथा दण्ड धारण कर रखा था। वे स्वयं दूसरे कामदेव के समान प्रतीत हो रहे
थे। उस मुनि को देखकर कामदेव के वश में हुई मंजुघोषा ने धीरे-धीरे मधुर वाणी से
वीणा पर गायन प्रारम्भ किया तो महर्षि मेधावी भी मंजुघोषा के मधुर गाने पर तथा
उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गए। वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर
उनसे उसी समय आलिङ्गन करने लगी।
महर्षि मेधावी उसके सौन्दर्य पर मोहित
होकर शिव रहस्य को भूल गए तथा काम के वशीभूत होकर उस अप्सरा के साथ रमण करने लगे।
काम के वशीभूत होने के कारण मुनि को उस
समय दिन-रात का कुछ भी ज्ञान न रहा तथा कई समय तक वे रमण करते रहे। तदुपरान्त
मंजुघोषा उस मुनि से बोली- ‘हे ऋषिवर! अब मुझे बहुत समय हो गया हैं,
अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।’
अप्सरा की बात सुनकर ऋषि ने कहा- ‘हे
मोहिनी! सन्ध्या को तो आयी हो, प्रातःकाल होने पर चली जाना।’
ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर अप्सरा उनके
साथ रमण करने लगी। इसी प्रकार दोनों ने साथ-साथ बहुत समय बिता दीया।
मंजुघोषा ने एक दिन ऋषि से कहा- ‘हे
विप्र! अब आप मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिये।’
मुनि ने इस बार भी वही कहा- ‘हे
रूपसी! अभी अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ हैं, कुछ समय और ठहरो।’
मुनि की बात सुन अप्सरा ने कहा- ‘हे
ऋषिवर! आपकी रात तो बहुत लम्बी हैं। आप स्वयं ही सोचिये कि मुझे आपके पास आये
कितना समय हो गया। अब और अधिक समय तक ठहरना क्या उचित हैं?’
अप्सरा की बात सुन मुनि को समय का बोध
हुआ तथा वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। जब उन्हें समय का ज्ञान हुआ कि उन्हें
रमण करते सत्तावन (५७) वर्ष व्यतीत हो चुके हैं तो उस अप्सरा को वह काल का रूप
समझने लगे। इतना अधिक समय भोग-विलास में व्यर्थ चला जाने पर उन्हें भयंकर क्रोध
आया। अब वह भयंकर क्रोध में जलते हुए उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तरफ भृकुटी
तानकर देखने लगे। क्रोध से उनके अधर काँपने लगे तथा इन्द्रियाँ बेकाबू होने लगीं।
क्रोध से थरथराते स्वर में मुनि ने उस अप्सरा से कहा- ‘मेरे तप
को नष्ट करने वाली दुष्टा! तू महा पापिन तथा प्रचंड दुराचारिणी हैं, तुझ पर धिक्कार हैं। अब तू मेरे श्राप से पिशाचिनी बन जा।’
मुनि के क्रोधयुक्त श्राप से वह अप्सरा
पिशाचिनी बन गई। यह देख वह व्यथित होकर बोली- ‘हे ऋषिवर! अब मुझ पर क्रोध
त्यागकर प्रसन्न होइए तथा कृपा करके बताइये कि इस दुखद श्राप का निवारण किस प्रकार
होगा? विद्वानों ने कहा हैं, साधुओं की
संगत अच्छा फल प्रदान करने वाली होती हैं तथा आपके साथ तो मेरे कई वर्ष व्यतीत हुए
हैं, अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए, अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मंजुघोषा को पिशाचिनी
बनना पड़ा।’ मंजुघोषा की बात सुनकर मुनि को अपने क्रोध पर
अत्यन्त ग्लानि हुई साथ ही अपनी अपकीर्ति का भय भी हुआ, अतः
पिशाचिनी बनी मंजुघोषा से मुनि ने कहा- ‘तूने मेरा भयंकर
अनिष्ठ किया हैं, किन्तु दयावश मैं तुझे इस श्राप से मुक्ति
का उपाय बतलाता हूँ। चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी हैं, उसका नाम पापमोचिनी हैं। उस एकादशी का व्रत करने से तुझे पिशाचिनी की देह
से मुक्ति प्राप्त हो जाएगी।’
ऐसा कहकर मुनि ने उसको व्रत का सब विधान
समझा दिया। उसके पश्चात अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए वे अपने पिता च्यवन
ऋषि के पास गये।
च्यवन ऋषि ने अपने पुत्र मेधावी को देखकर
कहा- ‘हे पुत्र! ऐसा क्या किया हैं तूने कि तेरे प्रत्येक तप नष्ट हो गए हैं?
जिससे तेरा समस्त तेज मलिन हो गया हैं?’
मेधावी मुनि ने लज्जा से अपना सिर झुकाकर
कहा- ‘पिताश्री! मैंने एक अप्सरा से रमण करके घंघोर पाप किया हैं। इसी पाप के
कारण सम्भवतः मेरा सारा तेज तथा मेरे तप सब कुछ नष्ट हो गए हैं। कृपा करके आप इस
पाप से छूटने का उपाय बतलाइये।’
ऋषि ने कहा- ‘हे
पुत्र! तुम चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि तथा भक्तिपूर्वक
उपवास करो, इससे तुम्हारे प्रत्येक पाप नष्ट हो जाएंगे।’
अपने पिता च्यवन ऋषि के वचनों को सुनकर
मेधावी मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। उसके प्रभाव से उनके
प्रत्येक पाप नष्ट हो गए। मंजुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का उपवास करने से
पिशाचिनी की देह से छूट गई तथा पुनः अपना सुन्दर रूप धारण कर स्वर्गलोक चली गई।
अतः हे राजन! जो मनुष्य पाप मोचनी एकादशी
का व्रत करते हैं उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। पापमोचनी एकादशी का महात्म्य
सुनने या पढने मात्र से ही सहस्त्र गोदान करने का फल प्राप्त होता हैं। ब्रह्म
हत्या, सोने की चोरी, गर्भ हत्या, मदिरा
का सेवन, गुरु पत्नी गमन करने वाले जैसे अनेक पाप इस व्रत के
प्रभाव से निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार, यह व्रत
अत्यधिक पूण्य को प्रदान करने वाला हैं।
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