वट पूर्णिमा व्रत पूजा विधि व्रत-कथा एवं महत्व | क्यो किया जाता है व्रत |
Vat Purnima Puja 2019
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सर्वप्रथम आपको वट पुर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाए। आपको माताजी सुख-सौभाग्य के
साथ-साथ संस्कारी संतान प्रदान करे।
आज इस विडियो के माध्यम से हम आपको बताएँगे की,
वट पुर्णिमा व्रत क्यो किया जाता है?
वट पूर्णिमा व्रत में वट के वृक्ष का महत्त्व
वट पूर्णिमा व्रत की सम्पूर्ण एवं वैदिक पूजा विधि
तथा
सनातन हिन्दू धर्म में प्रत्येक मास की पूर्णिमा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया
है। किन्तु, ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा अन्य सभी पुर्णिमा
में अति पावन मानी जाती है। भारत के कुछ क्षेत्रों में ज्येष्ठ पूर्णिमां को वट पूर्णिमा
व्रत के रूप में भी मनाया जाता है। यह व्रत, वट सावित्री व्रत
के समान ही किया जाता है। स्कंद पुराण एवं भविष्योत्तर पुराण के अनुसार तो वट सावित्रि
व्रत ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को रखा जाता है। गुजरात, महाराष्ट्र व दक्षिण भारत में विशेष रूप से महिलाएं ज्येष्ठ पूर्णिमा को वट सावित्रि
व्रत रखती हैं। उत्तर भारत में यह ज्येष्ठ अमावस्या को रखा जाता है। पौराणिक
मान्यता के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा का स्नान-दान आदि के लिये अत्यंत महत्व है तथा
यह पूर्णिमा भगवान भोलेनाथ के लिए भी जानी जाती है। भगवान शंकर के भक्त, अमरनाथ की यात्रा के लिये गंगाजल लेकर, इसी शुभ
दिवस पर अपनी यात्रा का प्रारम्भ करते हैं। मान्यता है कि इस दिन गंगा स्नान के पश्चात
पूजा-अर्चना कर, दान दक्षिणा देने से समस्त मनोकामनाएं शीघ्र
पूरी हो जाती हैं।
ज्येष्ठ पूर्णिमा को वट पूर्णिमा व्रत के रूप में मनाया जाता है अतः वट सावित्री
व्रत पूजा विधि के अनुसार ही वट पूर्णिमा का व्रत किया जाता है। इस दिन वट वृक्ष की
पूजा करने का विधान है। वट की पूजा के पश्चयात कथा अवश्य सुने या पढे।
क्यों किया जाता है वट पुर्णिमा व्रत?
पुराणों
के अनुसार इस दिन सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज के यहाँ से वापस ले आई
थी। इसके पश्चयात से सावित्री “सती सावित्री” नाम से प्रसिद्ध हो गई। इस त्यौहार का प्रत्येक विवाहित महिला के जीवन में
विशेष महत्व होता है। यह व्रत, पति की सुख समृद्धि तथा दिर्धायु
के लिए रखा जाता है। इस व्रत से जीवन में आने वाले सभी कष्टो का शीघ्र निवारण हो जाता
है। यह व्रत पुत्र प्रदायक है। व्रती के बच्चों के जीवन में सुख शांति व्याप्त रहती
है, तथा सभी का मार्मिक,
शारीरिक एवं बौद्धिक विकास होता है।
वट पूर्णिमा व्रत में वट वृक्ष महत्त्व
पीपल की भांति वट वृक्ष का भी अधिक महत्व है। इस व्रत में वट वृक्ष का विशेष महत्व
होता है, वट अर्थात बरगद का पेड़, यह एक विशाल पेड़ होता है, जिसमें कई जटाएं लटकती रहती है, जिन्हें सावित्री देवी का ही रूप माना जाता है। हिन्दू पूरण
में बरगद के पेड़ में तीनों देव, ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश का वास माना जाता है। इस वृक्ष की जड़ में ब्रम्हा रहते है, बीच में विष्णु तथा उपरी सामने के भाग में शिव होते है। हिन्दू धर्मानुसार यह
व्रत का सुहागन स्त्रियों के लिए अत्यंत अधिक महत्व होता है। इस व्रत को करने से पति
की लंबी आयु, सौभाग्य एवम संतान की प्राप्ति होती है। अतः
वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है। जिसकी विधि इस
प्रकार है –
वट पूर्णिमा व्रत पूजा विधि
वट पूर्णिमा व्रत को वट सावित्री व्रत के रूप में मनाया जाता
है अतः वट सावित्री व्रत पूजा विधि के अनुसार ही वट पूर्णिमा का व्रत किया जाता
है। इस पूजा को करने वाली स्त्रियाँ सबसे पहले पूजा वाले दिन प्रातः उठकर स्नान कर
शुद्ध हो जाती है। इसके पश्चयात नए वस्त्रों तथा आभूषणों को धारण करती हैं। वट पूर्णिमा
वाले दिन सभी स्त्रियाँ उपवास रखती है तथा पूजा के पश्चयात ही भोजन ग्रहण करती है।
इस दिन वट वृक्ष की पूजा करने का विधान है। अतः वृक्ष के नीचे एक स्थान को अच्छे
से साफ़ करके वहाँ पर सभी आवश्यक पूजन सामग्रियों को रख दिया जाता हैं। इस पूजा के
लिये दो बांस की टोकरियां, जिसमे एक टोकरी में सात प्रकार का अनाज, तथा साथ में गुड़, भीगे हुए चने, आटे से बनी हुई मिठाई,
कुमकुम, रोली, मोली, 5 प्रकार के फल,
पान का पत्ता, धुप, घी का दीया,
एक लोटे में जल तथा एक हाथ का पंखा यह सभी सामग्री कपड़े के
दो टुकड़ों से ढक कर रखा जाता है, वहीं दूसरी टोकरी में
मां सावित्री की प्रतिमा रखी जाती है, जिसके साथ धूप, दीप, अक्षत,
कुमकुम, मौली आदि पूजा सामग्री भी रखते हैं। इसके
पश्चयात सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियाँ निकाल कर उसे वट वृक्ष के जड़ में स्थापित
किया जाता है,
एवं इन मूर्तियों को लाल वस्त्र अर्पित करते है। वट वृक्ष में
जल चढ़ाकर,
कुमकुम, अक्षत चढाते है, साथ ही देवी सावित्री की पूजा करते है। सावित्री की पूजा कर, वट वृक्ष की सात प्रदक्षिणा करते हुए लाल मौली अथवा सूत के धागे से वट को
बांधती है। इसके पश्चयात बांस के बने पंखे से सत्यवान तथा सावित्री की मूर्ति को हवा
करते हैं। स्त्रियाँ वट वृक्ष के एक पत्ते को अपने बाल में लगा के रखती हैं। इसके
पश्चात वट वृक्ष के नीचे ही सुहागिन स्त्रियां, अपने पुरोहित
अथवा योग्य पंडित जी से सत्यवान सावित्री की कथा सुनती हैं। कथा समाप्त हो जाने के
पश्चयात कथा कहने वाले पंडित जी को अपने सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दी जाती है। इसके
पश्चयात सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं। इसके पश्चात किसी कन्या अथवा किसी गरीब निर्धन
व्यक्ति को अपने समर्थ एवं श्रद्धानुसार दान-पुण्य किया जाता है। सभी को प्रसाद के
रूप में चने व गुड़ का वितरण किया जाता है। इसके पश्चयात घर में सभी बड़े-बुजुर्गो
के चरण-स्पर्श कर सभी स्त्रियाँ अखड़ सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद प्राप्त करती है।
सभी महिलाएं पुरे दिन व्रत रखती है तथा सूर्यास्त के पश्चयात व्रत खोल लेती है। संध्या
के समय घर में बनी अथवा किसी हलवाई से लायी गयी मिठाई का सेवन प्रसाद के रूप में कर
अपना व्रत खोलती हैं।
वट पूर्णिमा व्रत की पौराणिक व्रत-कथा
स्कन्द पुराण के अनुसार, भद्र देश में “अश्वपति” नाम के एक सच्चे तथा न्यायप्रिय राजा हुआ करते थे।
उसके जीवन में सभी तरह की सुखकर की सामग्री तथा शांति थी। बस एक ही कष्ट था, राजा अश्वपति को कोई संतान नही थी, जिस कारण वे
सदैव कुण्ठित रहते थे। वह एक बच्चा चाहते थे, जिसके
लिए उन्होंने अपने राज्य पुरोहित से इस संदर्भ में कोई उपाय बताने का अनुरोध किया।
तत्पश्चात राज्य पुरोहित ने कहा, “हे राजन आप देवी सावित्री की आराधना करे, माँ सावित्री प्रसन्न होकर आपको मनोवांछित वर अवश्य देंगी।” संतान प्राप्ति के
मोह मे, राजा अश्वपति ने 18 वर्ष तक कठिन तपस्या कि, जिससे माँ सावित्री अति प्रसन्न हुई। माँ सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें पुत्री
का वरदान दिया। अतः राजा अश्वपति के घर में पुत्री का जन्म हुआ। राजा अश्वपति ने माँ
सावित्री के नाम पर ही अपनी पुत्री का भी नाम सावित्री रखा।
समय व्यतीत होने के साथ सावित्री युवावस्था
में पहुँच गई। सावित्री सर्व गुणों से सम्पन्न एवं अति ज्ञानी सुकन्या थी। जिस कारण
से राजा अश्वपति सावित्री के योग्य वर खोज नहीं पा रहा थे। कुछ समय पश्चात राजा ने
सावित्री को स्वंय वर खोजने के लिए भेज दिया।
सावित्री ने जब युवराज सत्यवान को देखा तो उन्हें
पति रूप में स्वीकार कर लिया। यह बात जब महर्षि नारदमुनि को ज्ञात हुई तो उन्होंने
इस सदर्भ में राजा अश्वपति को बताया कि आपकी कन्या को वर ढूंढने में बहुत बड़ी चूक हो
गई है। राजकुमार सत्यवान श्रेष्ठ, गुणवान तथा धर्मात्मा है
किन्तु सत्यवान की कुंडली के अनुसार उसका जीवन अधिक नहीं, वह
अल्पायु है एवम एक वर्ष पश्चात इनकी मृत्यु लिखी है।
यह जान कर, राजा
अश्वपति पुनः व्याकुल हो गए। उन्होंने अपनी बेटी सावित्री से निवेदन किया कि कोई अन्य
वर का चुनाव कर ले। किन्तु सावित्री ने कहा की, “पिता जी आर्य कन्याए अपने पति का केवल एक ही बार चुनाव करती है तथा धर्म
के अनुसार, कन्यादान भी एक बार ही किया जाता है। अब विधाता की
जो भी इच्छा हो,
मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी।”
पुत्री की बात मानते हुए राजा
अश्वपति ने सत्यवान एवं सावित्री का विवाह करवा दिया। सावित्री ससुराल पहुंच कर सास-ससुर
की सेवा में विलीन हो गयी। समय व्यतीत होने के साथ, वह
निर्धारित दिन भी आ गया, जिस दिन राजकुमार सत्यवान की मृत्यु
सुनिश्चित की गई थी।
सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ एक बार
बरगद पेड़ के नीचे बैठी थी। सत्यवान, सावित्री
की गोद में सर रखकर लेटे हुए थे। उसी समय सत्यवान के प्राण लेने के लिए यमलोक के राजा
यमराज, अपने दूत को भेजते है। किन्तु सावित्री अपने अति प्रिय
स्वामी के प्राण देने से मना कर देती है। यमराज कई दूतो को भेजते है, किन्तु सावित्री किसी को भी अपने पति के प्राण नहीं लेने देती है। तब सत्यवान के
प्राण हरने स्वयं यमराज प्रकट होते है। सावित्री के मना करने पर यम ने कहा “तुम्हे
क्या चाहिए। मनोवांछित वरदान ले लो, परन्तु सत्यवान
के प्राण ले जाने दो। यह सुनकर सावित्री अपने सास-ससुर की सुख शांति एवं मोक्ष मांगती
है,
जो यमराज उसे यह वरदान दे देते है। तभी यम सत्यवान के जीवन को
लेकर जाने लगते है, तो सावित्री भी उसके पीछे-पीछे चल देती है।
यम पीछे पलट कर देखते है तथा सावित्री को लौट
जाने के लिए कहते है की,
“तुम्हे मैंने वरदान दे दिया अब और क्या चाहिए।”
तब सावित्री निवेदन करती हैं की वह अंतिम वरदान में पुत्र की माँ बनना चाहती है। तुरंत
ही यमराज यह भी मान जाते है तथा कहते है “तथास्तु।” किन्तु सावित्री पुनः यम के पीछे
चलती रहती है। तब यम जहते है, “सावित्री, तुम्हारे कहने के अनुसार मैंने तुम्हे वर दे दिये अब लौट जाओ।” तब सावित्री
बोलती है की,
“हे यमदेव! पत्नी व्रता के कर्तव्य का निर्वाह
कर रही हूँ। आपने तो पुत्र की माँ बनने का वरदान दे दिया, किन्तु
मैं पति के बिना माँ कैसे बनूँगी। में पतिव्रता नारी हु। अतः आप अपने दिए गए वरदान
को पूरा करें एवं मेरे स्वामी सत्यवान के प्राण को अपने पाश से मुक्त करे।” यह
सुनकर यमराज कुछ नहीं बोल पाते, किन्तु सावित्री के सच्चे स्नेह
को जान जाते है एवं सावित्री के प्रयास को देख खुश होते है तथा उसी समय सत्यवान की
आत्मा उसके शरीर में पूनः भेज देते है। अतः राजकुमार सत्यवान पुनः जीवित हो जाता
है। सावित्री उसी वट वृक्ष के नीचे पहुंचती है। दोनों हर्षित होकर अपने माता-पिता के
पास पहुंच कर उन्होंने देखा की माता-पिता दिव्य ज्योति में लिन हो चुके थे। अनंतकाल
तक सावित्री तथा सत्यवान सुख-सौभाग्य भोगते रहे। इस प्रकार कथा सम्पन्न हुई।