सफला एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Safala Ekadashi 2019 | Saphala Ekadashi Vrat in Hindi #EkadashiVrat
saphala ekadashi vrat katha in hindi |
वैदिक विधान कहता हैं की, दशमी
को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना
चाहिए। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती हैं।
प्रत्येक एकादशी का भिन्न भिन्न महत्व होता हैं तथा प्रत्येक एकादशीयों की एक
पौराणिक कथा भी होती हैं। एकादशियों को वास्तव में मोक्षदायिनी माना गया हैं।
भगवान श्रीविष्णु जी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई हैं चाहे वह कृष्ण पक्ष की
हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले प्रत्येक भक्तों पर
प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती हैं, अतः प्रत्येक
एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करते
हैं तथा व्रत रखते हैं, साथ ही रात्री जागरण भी करते हैं।
किन्तु इन प्रत्येक एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी हैं जिस दिन भगवान विष्णु जी के विभिन्न नाम-मंत्रों का उच्चारण
करते हुए फलों के द्वारा उनका पूजन किया जाता हैं। अतः पौष मास के कृष्ण पक्ष की
एकादशी को “सफला एकादशी” कहा जाता हैं। इस एकदाशी को “पौष कृष्ण एकदशी” भी
कहा जाता हैं। सफला एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार मनोवांछित फल प्रदान करने
वाला हैं। सफला एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु जी को ऋतु-फल निवेदित करना चाहिए
तथा धूप-दीप आदि से से श्रीहरिकी अर्चना करना चाहिए। हिन्दू धर्मानुसार इस व्रत के
पुण्य से मनुष्य के प्रत्येक कार्य सफल होते हैं तथा उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते
हैं। पद्मपुराण का कथन हैं की, सफला एकादशी के अनुष्ठान से
विष्णु भगवान को अत्यंत शीघ्र प्रसन्न किया जा सकता हैं तथा पूर्ण उपवास एवं
रात्रि जागरण से राजसूय यज्ञ के समान फलों की प्राप्ति होती हैं। सफला एकादशी
सम्पूर्ण विश्व के संरक्षक भगवान विष्णु जी को समर्पित हैं। अतः इस दिन भगवान
नारायण की विधिपूर्वक पूजा-आरती करनी चाहिए। तथापि धन प्राप्ति एवं आर्थिक समृद्धि
के लिए सफला एकादशी के दिन माँ लक्ष्मीजी की भी पूजा की जाती हैं। युधिष्ठिर के
पूछने पर भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं कहाँ हैं की, “बडे-बडे
यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं प्राप्त होता, जितना
एकादशी व्रत के अनुष्ठान से प्राप्त होता हैं।” अतः एकादशी का व्रत सभी मनुष्यो को
अवश्य करना चाहिए। क्यों की, एकादशी समस्त व्रतों में
श्रेष्ठ तथा कल्याण करने वाली मानी गई हैं। सफला एकादशी के दिन दीप-दान भी अवश्य
करें। एकादशी का रात्रि में जागरण करने से जो फल प्राप्त होता हैं, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर भी नहीं प्राप्त होता। अतः रात्री में
हरी नाम भजते हुए यथासंभव जागरण करना चाहिए। सफला एकादशी के दिन चावल, लहसुन, शराब तथा अन्य नशीली चीजो का सेवन वर्जित
हैं। भगवान श्री कृष्ण इस व्रत की महिमा बताते हुए कहते हैं की, “सफला एकादशी के व्रत से जातक को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति होती हैं
तथा वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु के पश्चात विष्णु-लोक को प्राप्त होता हैं। इस
दिन पूर्ण श्रद्धा से व्रत करके भक्त अपने पापों को नष्ट कर सकते हैं। जो जातक
सच्चे भक्ति-भाव से एकादशी-व्रत करता हैं, वह निश्चय ही
प्रभु की कृपा के पात्र बन जाता हैं।” पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें सफला एकादशी के
व्रत की कथा विस्तार-पूर्वक वर्णित हैं। इस एकादशी के प्रताप से ही लुम्पक जैसा
महापापी भी भगवान श्रीहरि की कृपा से वैकुंठ का अधिकारी बन गया था।
सफला एकादशी का व्रत कब किया जाता हैं?
सनातन हिन्दू
पंचाङ्ग के अनुसार सफला एकादशी का व्रत सम्पूर्ण उत्तरी भारत-वर्ष में पौष मास के कृष्ण
पक्ष के एकादशी के दिन किया जाता हैं। वहीं, गुजरात महाराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्ण
पक्ष के एकादशी के दिन किया जाता हैं। साथ ही, अङ्ग्रेज़ी
कलेंडर के अनुसार यह व्रत दिसम्बर या जनवरी के महीने में आता हैं।
सफला एकादशी व्रत का महत्व
Saphala Ekadashi Vrat |
पद्मपुराणके
उत्तरखण्ड में एकादशी के व्रत के महत्व को पूर्ण रुप से बताया गया हैं। सफला
एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार फल देता हैं। सफला एकदशी का व्रत रखने से जातक
को अपनी समस्त इच्छाओं तथा स्वप्नों को पूर्ण करने में सहायता प्राप्त होती हैं। सफला
एकदशी का महत्व “ब्रह्मांड पुराण” में
धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान कृष्ण के बीच बातचीत के रूप में वर्णित हैं। सफला
एकदशी का दिन एक ऐसे व्रत के रूप में वर्णित हैं की, जिस दिन
व्रत रखने से समस्त दुःखों की समाप्ति होती हैं तथा भाग्य शीघ्र उदित हो जाता
हैं। हिन्दू धर्मानुसार इस व्रत के पुण्य
से मनुष्य के प्रत्येक कार्य सफल होते हैं तथा उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। पद्मपुराण
में कहा गया हैं कि विष्णु भगवान को सफला एकादशी के अनुष्ठान से अत्यंत शीघ्र
प्रसन्न किया जा सकता हैं। युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं
बताया हैं की, “बडे-बडे यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं
होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता हैं।” अतः एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए
अनिवार्य बताया गया हैं। एकादशी के दिन सूर्य तथा अन्य ग्रह अपनी स्थिती में
परिवर्तित होते हैं, जिसका
प्रत्येक मनुष्य की इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता हैं। इन विपरीत प्रभाव में संतुलन
बनाने हेतु व्रत किया जाता हैं। व्रत तथा ध्यान ही मनुष्यो में संतुलित रहने का
गुण विकसित करते हैं। सफला एकादशी के महत्व का वर्णन “ब्रह्मवैवर्त
पुराण” में भी प्राप्त होता हैं, तथा
इस एकादशी को मेरूपर्वत के समान जो बड़े-बड़े पाप हैं उनसे मुक्ति प्राप्त करने
हेतु सर्वाधिक आवश्यक माना गया हैं। उन समस्त पाप-कर्मो को यह पापनाशिनी सफला
एकादशी एक ही उपवास में भस्म कर देती हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार भगवान्
श्रीकृष्ण बताते हैं कि हजारों वर्षो की तपस्या से जो फल नहीं प्राप्त होता,
वह फल इस व्रत से प्राप्त हो जाता हैं। जो व्यक्ति निर्जल संकल्प
लेकर सफला एकादशी व्रत रखता हैं, उसे मोक्ष के साथ भगवान
विष्णु की प्राप्ति होती हैं। पूर्ण श्रद्धा-भाव से यह व्रत करने से जाने-अनजाने
में किये जातक के समस्त पाप क्षमा होते हैं, तथा उसे मुक्ति
प्राप्त होती हैं। श्रीकृष्ण जी आगे बताते हैं कि इस दिवस दान का विशेष महत्व होता
हैं। जातक यदि अपनी इच्छा से अनाज, जूते-चप्पल, छाता, कपड़े, पशु या सोना का
दान करता हैं, तो इस व्रत का फल उसे पूर्णतः प्राप्त होता
हैं। अतः सफला एकादशी व्रत के दिवस यथासंभव दान व दक्षिणा देनी चाहिए। जो जातक
सफला एकादशी का सच्ची श्रद्धा-भाव से व्रत करते हैं, उनके
पितर नरक के दु:खों से मुक्त हो कर भगवान विष्णु के परम धाम अर्थात विष्णुलोक को
चले जाते हैं। साथ ही जातक को सांसारिक जीवन में सुख शांति, ऐश्वर्य,
धन-सम्पदा तथा अच्छा परिवार प्राप्त होता हैं। जो मनुष्य
जीवन-पर्यन्त एकादशी को उपवास करता हैं, वह मरणोपरांत
वैकुण्ठ जाता हैं। श्रीकृष्ण जी यह भी बताते हैं कि इस व्रत के प्रभाव से जातक को
मृत्यु के पश्चात नरक में जाकर यमराज के दर्शन कदापि नहीं होते हैं, किन्तु सीधे स्वर्ग का मार्ग खुलता हैं। जो मनुष्य सफला एकादशी का व्रत
रखता हैं, उसे अच्छा स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, सम्पति, उत्तम बुद्धि,
राज्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता हैं। विष्णु जी के भक्तो के लिए,
इस एकादशी का विशेष महत्व हैं। जो जातक सफला एकादशी के दिन भगवान
श्रीविष्णु की कथा का श्रवण करता हैं, उसे सातों द्वीपों से
युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता हैं। इस दिवस उपवास रखने से पुण्य फलों
की प्राप्ति होती हैं, साथ ही व्रत के प्रभाव से जातक का
शरीर भी स्वस्थ रहता हैं। जो व्यक्ति पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए
मध्याह्न या संध्या-काल में एकाहार अर्थात एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने का
विधान हैं। एकादशी में अन्न का सेवन करने से पुण्य का नाश होता हैं तथा भारी दोष
लगता हैं। एकादशी-माहात्म्य को सुनने मात्र से सहस्र गोदानोंका पुण्यफल प्राप्त
होता हैं। पौराणिक ग्रंथो के अनुसार एकादशी का व्रत जीवों के परम लक्ष्य, भगवद-भक्ति को प्राप्त करने में सहायक माना गया हैं। अतः एकादशी का दिन
प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से भक्ति करने के लिए अति शुभकारी तथा फलदायक हैं। इस दिवस
जातक अपनी इच्छाओं से मुक्त हो कर यदि शुद्ध चित्त से प्रभु की पूर्ण-भक्ति से
सेवा करता हैं तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपा के पात्र बनता हैं। सफला एकादशी व्रत
की कथा सुनने, सुनाने तथा पढने मात्र से 100 गायो के दान के
तुल्य पुण्य-फलो की प्राप्ति होती हैं। अतः सफला एकादशी मुक्तिदायिनी होने के साथ
ही समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली माना जाती हैं।
सफला एकादशी व्रत पूजन सामग्री
⧴ भगवान के लिए पीला वस्त्र
⧴ श्री विष्णु जी की मूर्ति
⧴ शालिग्राम भगवान की मूर्ति
⧴ पुष्प तथा पुष्पमाला
⧴ नारियल तथा सुपारी
⧴ धूप, दीप तथा घी
⧴ पंचामृत (दूध (कच्चा दूध), दही, घी, शहद तथा शक्कर का
मिश्रण)
⧴ अक्षत
⧴ तुलसी पत्र
⧴ चंदन
⧴ कलश
⧴ प्रसाद के लिए मिष्ठान तथा ऋतुफल
सफला एकादशी व्रत की पूजा विधि
पद्म पुराण के अनुसार सफला एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु जी
का पूर्ण विधि-विधान तथा विशेष मंत्रों के साथ पूजन करना चाहिए। सफला एकादशी के
दिन भगवान विष्णु को ऋतुफल निवेदित करना चाहिए।
Saphala Ekadashi Vrat |
एकादशी का व्रत
रखने वाले भक्तो को अपना मन शांत एवं स्थिर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की
द्वेष-भावना या क्रोध को मन में नहीं लाना चाहिए। इस दिन विशेष रूप से व्रती को
बुरे कर्म करने वाले, पापी
तथा दुष्ट व्यक्तियों की संगत से बचना चाहिये। परनिंदा से बचना चाहिए तथा इस दिन
कम से कम बोलना चाहिए, जिस से मुख से कोई गलत बात ना निकल
पाये। तथापि यदि जाने-अंजाने कोई भूल हो जाए, तो उसके लिये
भगवान श्री हरि से क्षमा मांगते रहना चाहिए।
प्रत्येक
एकादशी व्रत का विधान स्वयं श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा हैं। व्रत की विधि
बताते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि एकादशी व्रतों के नियमों का पालन दशमी तिथि से
ही प्रारम्भ किया जाता हैं, अतः
दशमी तिथि के दिन में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए तथा साँयकाल में सूर्यास्त के
पश्चात भोजन नहीं करना चाहिए एवं रात्रि में भोग विलास को त्याग कर एवं पूर्ण
ब्रह्मचर्य का पालन तथा नारायण की छवि मन में बसाए हुए, भगवान
का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए। दशमी के दिन से ही, चावल, उरद, चना, मूंग, जौ, मसूर, लहसुन, शराब तथा अन्य नशीली चीजो का सेवन नहीं करना चाहिए।
अगले दिन
अर्थात एकादशी व्रत के दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से पवित्र होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूजा-घर को शुद्ध कर लेना
चाहिए। इसके पश्चात आसन पर बैठकर व्रत संकल्प लेना चाहिए कि “मैं आज समस्त भोगों को त्याग कर, निराहार एकादशी का
व्रत करुंगा, हे प्रभु मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा करें। तथा मेरे समस्त पाप क्षमाँ करे।” संकल्प लेने के पश्चात कलश स्थापना की जाती हैं तथा उसके ऊपर भगवान
श्रीविष्णु जी की मूर्ति या प्रतिमा रखी जाती हैं। उसके पश्चात शालिग्राम भगवान को
पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए एवं पुष्प तथा ऋतु फल का भोग लगायें तथा
शालिग्राम पर तुलसी-पत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। उसके पश्चात धूप, दीप, गंध, कमल अथवा वैजयन्ती
पुष्प, गंगा जल, पंचामृत, नैवेद्य, मिठाई, नारियल, सुपारी, सुंदर आंवला, बेर, अनार, आम आदि जैसे ऋतु-फल से भगवान विष्णु का पूजन
करने का विधान हैं। अतः भगवान लक्ष्मी नारायण जी की विधिवत पूजन-आरती करनी चाहिए। साथ
ही, धन प्राप्ति तथा आर्थिक समृद्धि के लिए सफला एकादशी के
दिन माँ लक्ष्मीजी की भी पूजा करनी चाहिए। प्रसाद के रूप में पंचामृत का समस्त
श्रद्धालुओ में वितरण करना चाहिए। इस दिन श्रीखंड चंदन अथवा सफ़ेद चन्दन या गोपी
चन्दन मस्तक पर लगाकर पूजन करना चाहिए।
व्रत के दिन
अन्न वर्जित हैं। अतः निराहार रहें तथा सध्याकाल में पूजा के पश्चात चाहें तो फलाहार
कर सकते हैं। फल तथा दूध खा कर एवं सम्पूर्ण दिवस चावल तथा अन्य अनाज ना खा कर
आंशिक व्रत रखा जा सकता हैं। यदि आप किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं तो भी एकादशी के
दिन चावल का प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए तथा इस दिन आप दान करके पुन्य
प्राप्त कर सकते हैं।
एकादशी के व्रत
में रात्रि जागरण का अधिक महत्व हैं। कहा गया हैं की, जो भक्तजन एकादशी की रात्रि
में जागरण एवं भजन कीर्तन करते हैं उन्हें श्रेष्ठ यज्ञों से जो पुण्य प्राप्त
होता उससे कई गुना अधिक पुण्य फलो की प्राप्ति होती हैं। अतः संभव हो तो रात्रि में जगकर भगवान का भजन
कीर्तन अवश्य करना चाहिए। एकादशी के दिन भगवान विष्णु का स्मरण कर विष्णु-सहस्रनाम
का पाठ करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा-दृष्टि प्राप्त होती हैं। इस दिन सफला
एकादशी व्रत की कथा अवश्य पढनी, सुननी
तथा सुनानी चाहिए।
व्रत के अगले
दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर सवेरा होने पर पुन: स्नान करने के पश्चात श्रीविष्णु
भगवान की पूजा तथा आरती करनी चाहिए। उसके पश्चात सही मुहूर्त में व्रत का पारण
करना चाहिए, साथ ही
ब्राह्मण-भोज करवाने के पश्चात योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण को अन्न का दान तथा
यथा-संभव सोना, तिल, भूमि, गौ, फल, छाता, जनेऊ या धोती दक्षिणा के रूप में देकर, उनका
आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा उपस्थित श्रद्धालुओ में प्रसाद वितरित करने के
पश्चात स्वयं मौन रह कर, भोजन ग्रहण करना चाहिए।
सफला एकादशी व्रत का पारण
एकादशी के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते
हैं। कोई भी व्रत तब तक
पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण ना किया जाए। एकादशी
व्रत के अगले दिवस सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता हैं।
ध्यान
रहे,
१. एकादशी
व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व करना अति आवश्यक हैं।
२. यदि
द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय
के पश्चात ही करना चाहिए।
३. द्वादशी तिथि के भीतर पारण ना करना
पाप करने के समान माना गया हैं।
४. एकादशी
व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५. व्रत
तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल का होता हैं।
६. व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान
के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७. जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें
व्रत समाप्त करने से पूर्व हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए।
हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती हैं।
८. यदि जातक, कुछ कारणों से प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं हैं, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।
सफला एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड
के अनुसार धर्मराज
युधिष्ठिर के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से परम पुण्यकारी सफला एकादशी के विषय पर
पूछे जाने पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सफला एकादशी की कथा सुनाई थी।
उन्होंने बताया कि, “हे
कुंती पुत्र! में तुम्हें सफला एकादशी की कथा सुनता हूँ। सफला एकादशी की कथा को
पढ़ने, सुनने अथवा सुनाने मात्र से ही समस्त प्राणी
को राजसूय यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं। अतः तुम यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो-”
प्राचीन समय में चम्पावती नगरी में महिष्मान नामक एक धर्मनिष्ठ
राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उसका ज्येष्ठ पुत्र का नाम लुम्पक था। लुम्पक,
अत्यंत दुष्ट तथा महापापी था। वह सदेव, पर-स्त्री-गमन जैसे
निंदनीय कार्यो में अपने पिता का धन व्यय किया करता था। देवता, ब्राह्मण, विद्वान आदि सुपात्रों की निंदा करके वह
अति प्रसन्न होता था। राज्य की समस्त प्रजा उसके कुकर्मों से अत्यंत दुःखी रहती थी,
परंतु राज्य का युवराज होने के कारण सब चुपचाप उसके अत्याचारों को
सहन करने के लिए विवश थे तथा किसी ने भी साहस कर, राजा से
उसकी शिकायत कभी नहीं की थी।
परंतु जगत का यह नियम हैं की, बुराई
अधिक समय तक व्याप्त नहीं रहती। एक दिन राजा महिष्मान को लुम्पक के कुकर्मों का पता
चल गया। तब राजा अत्यधिक क्रोधित हुआ तथा उसने लुम्पक को अपने राज्य से निकाल
दिया। पिता द्वारा त्यागते ही लुम्पक को सभी ने भी त्याग दिया। अब वह सोचने लगा कि,
“अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं?” अंत
में उसने रात्रि को पिता के ही राज्य में चोरी-चकारी व लूट-खसौट करना प्रारम्भ कर
दिया।
वह दिन में राज्य से बाहर रहने लगा तथा रात्रि को अपने पिता की
नगरी में जाकर चोरी तथा अन्य दुष्ट कार्य करने लगा। रात्रि में वह जाकर नगर के
निवासियों को मारता तथा कष्ट देता। वन में वह निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर उनका
भक्षण कर लेता था। कभी किसी रात्रि जब वह नगर में चोरी आदि करते पकड़ा भी जाता तो
राजा के डर से पहरेदार उसे छोड़ दिया करते थे।
ऋषि-मुनियों द्वारा कहा गया हैं कि कभी-कभी अनजाने में भी
प्राणी प्रभु की कृपा का पात्र बन सकता हैं। ऐसा ही कुछ दुष्ट लुम्पक के साथ भी होने
वाला था। जिस वन में वह रहता था, वह वन भगवान जी को भी अति प्रिय था। उस वन में
एक प्राचीन पीपल का वृक्ष था तथा उस वन को प्रत्येक लोग देवताओं का निवास-स्थान
मानते थे। वन में उसी पीपल के वृक्ष के नीचे वह महापापी लुम्पक रहता था।
कुछ दिन के पश्चात पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन अल्प-वस्त्र
पहनने के कारण लुम्पक भिषण शित से मूर्च्छित हो गया। शित के कारण वह रात्रि को सो
न सका तथा उसके हाथ-पैर अकड़ गए। सपूर्ण रात्रि अत्यंत कठिनता से व्यतीत हुई, अतः
सूर्य के उदय होने पर भी वह सचेत ना हो पाया। साथ ही, सफला
एकादशी की दोपहर तक वह पापी मुर्च्छित ही पड़ा रहा। जब सूर्य के तपने से उसे कुछ
गर्मी प्राप्त हुई, तब दोपहर में उसे चेतना हुई तथा वह अपने
स्थान से उठकर किसी प्रकार चलते हुए वन में भोजन की खोज में विचरण करने लगा। उस
दिन वह शिकार करने में पूर्ण असमर्थ था, अतः पृथ्वी पर गिरे
हुए फलों को एकत्रित कर पूनः अपने पीपल के वृक्ष के नीचे पहुच गया, किन्तु तब तक
सूर्य भगवान अस्त होने चले थे।
अत्यंत भूखा होने के पश्चात् भी वह उन फलों को खा ना सका, क्योंकि
वह नित्य जीवों को मारकर उनका मांस खाया करता था अतः उसे फल खाना तनिक भी नहीं
भाया, अतः उसने उन फलों को पीपल की जड़ के पास रख दिया तथा
दुःखी होकर बोलने लगा की, “हे भगवान्! यह फल आपको ही अर्पण करता
हूँ। इन फलों से आप ही तृप्त हों।” ऐसा कहकर वह रुदन करने लगा तथा रात्रि को उसे तनिक
भी निंद्रा नहीं आई। वह सपूर्ण रात्रि विलाप करता रहा।
इस प्रकार उस पापी से अनजाने में ही एकादशी का उपवास हो गया था।
उस महापापी के इस उपवास तथा रात्रि जागरण से भगवान श्रीविष्णु जी अत्यंत प्रसन्न
हुए तथा उसके प्रत्येक पाप नष्ट हो गए। प्रातः होते ही अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा
हुआ एक दिव्य रथ वहाँ आया तथा लुम्पक के समक्ष उपस्थित हो गया। उसी समय आकाशवाणी भी
हुई की, “हे युवराज! भगवान श्रीहरी के प्रभाव से तेरे प्रत्येक पाप नष्ट हो गए हैं, अब
तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त करने योग्य हैं।”
यह आकाशवाणी सुनते ही लुम्पक अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोला की, “हे प्रभु! आपकी जय हो! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!” ऐसा
कहकर उसने सुंदर वस्त्र धारण किए तथा उसके पश्चात् वह अपने पिता के पास पहुचा।
पिता के समक्ष पहुंचकर उसने अपने पिता को समस्त वृत्तांत सविस्तार सुनाया। पुत्र
के मुख से सारा वृत्तांत सुनने के पश्चात् राजा ने अपना सम्पूर्ण राज्य को सौंप
दिया तथा स्वयं सन्यासी बन कर, वन की ओर प्रस्थान कर गया।
अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। उसकी स्त्री, पुत्र
आदि भी श्रीविष्णु जी के परम भक्त बन गए। वृद्धावस्था आने पर वह अपने पुत्र को
राज्य सौंपकर भगवत प्राप्ति के लिए वन में चला गया तथा अंत में परम-धाम को प्राप्त
हुआ।
Saphala Ekadashi Vrat |
“अतः हे कुंती पुत्र! जो मनुष्य पूर्ण श्रद्धा व भक्तिपूर्वक
सफला एकादशी का व्रत करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अंत में
मुक्ति अवश्य प्राप्त होती हैं। यह सफला एकादशी की कथा हमें भगवान के अति कृपालु
होने का भान कराती हैं। जो मनुष्य इस सफला एकादशी के माहात्म्य को नहीं समझते,
उन्हें पूंछ तथा सींगों से विहीन पशु ही समझना योग्य होगा। यदि कोई
मनुष्य अज्ञानवश भी प्रभु का स्मरण करे तो उसे पूर्ण फल की प्राप्ति होती हैं। यदि
मनुष्य निश्छल भाव से अपने पापों की क्षमा मांगे तो भगवान उसके बड़े-से-बड़े पापों
को भी क्षमा कर देते हैं। लुम्पक जैसा महापापी भी भगवान श्रीहरि की कृपा से वैकुंठ
का अधिकारी बना।”