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25)पंच मेवा (गरी/नारियल),
चिरौंजी, बादाम, छुहारा
और किशमिश का मिश्रण) - 100 ग्राम
26)ऋतु फल - श्रद्धा अनुसार
27)फूल/फूल माला - एक माला
28)धूप/अगरबत्ती -1 पैकेट
29)जौ - 500 ग्राम
30)काले तिल -100
ग्राम
31)हल्दी - 50 ग्राम
32)हल्दी की गांठ - 01 गांठ
33)लाल चन्दन - 10
रू
34)मिट्टी/तांबे का बड़ा दीया - 02
35)मिट्टी के छोटे दीये - 02
36)रूई/बाती (साबुत) - 1
पैकेट छोटा
37)पीला/लाल कपड़ा - सवा मीटर
38)सफ़ेद कपड़ा- सवा मीटर
39)कपूर - 20
टिक्की
40)साबुत उडद की दाल - 250
ग्राम
41)गंगाजल- 250 मिली
42)इत्र- छोटी सीसी
43)दूर्वा/दुप- थोड़ा सा
44)आम के पत्ते - 11
पत्ते
45)आम की लकडियां - 1.25 किलो
46)हवन कुंड- 01
47)हवन सामग्री - 1
छोटा पेक
नोट -शक्कर गुड वाली होनी चाहिए। चावल टूटे हुए न हो। पंच मेवा में बादाम, छुहारे, किशमिश,
मखाने, काजू पांच होने चाहिए। पंच मिठाई में
बुन्दी के लड्डू, बर्फी, बेसन के लड्डू
या बर्फी, मिल्क केक, कलाकन्द, नारियल की बर्फी या कोई भी सुखी मिठाई लेनी है। ऋतु फल मौसम के कोई भी
पांच फल लेने है। जिसमें केला, अनार लेना जरूरी है। तीन फल
कुछ भी मौसम वाले फल ले सकते है। सूखा बेल फल बिल्व पत्री वाले फल को कहते है।
भगवती श्रृंगार में अपने हाथ की चूड़ियाँ, बिंदी, सिंदूर, मेहंदी, हार, माला, कंघा, दर्पण, सैंट, जो आप उपयोग में स्वयं के लिए लाते है। भगवती
की साड़ी काले, नीले रंग की ना हो। सुनार से चांदी की देवी
की मूर्ति में सोने की बिंदी मस्तक में लगवा दे। पूजन कोई भी हो लकडी की चौकी जरूर
होनी चाहिए। अगर आप स्वयं भी पूजन कर रहे हो या करवा रहे हो। कुण्डली लगा के बैठे
हुए 9 नाग (सर्प) होने चाहिए। आटे का घी में चूर्ण (कषार,
महाभोग) सूखा प्रसाद बनाना है।
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अपरा एकादशी कब हैं 2019 | एकादशी तिथि व्रत पारण का समय | तिथि व शुभ मुहूर्त | Achala Ekadashi 2019 #EkadashiVrat
अपरा एकादशी
वैदिक
विधान कहता हैं की, दशमी
को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना
चाहिए। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिक मास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती हैं। प्रत्येक
एकादशी का भिन्न-भिन्न महत्व होता हैं तथा प्रत्येक एकादशियों की एक पौराणिक कथा
भी होती हैं। एकादशियों को वास्तव में मोक्षदायिनी माना गया हैं। भगवान श्री विष्णु
जी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई हैं चाहे वह कृष्ण पक्ष की हो अथवा शुक्ल
पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले प्रत्येक भक्तों पर प्रभु की अपार
कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती हैं, अतः प्रत्येक एकादशियों पर
हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करते हैं तथा व्रत
रखते हैं, साथ ही रात्रि जागरण भी करते हैं। किन्तु इन प्रत्येक
एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी हैं जिसके व्रत को करने से जातक को अपार धन-संपदा तथा
प्रसिद्धि प्राप्त होती हैं। अतः ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को
अपरा या अचला एकादशी कहा जाता हैं। अपरा एकादशी के प्रभाव से पाप कर्मों से
छुटकारा प्राप्त होता हैं तथा इस दिन व्रत करने से कीर्ति, पुण्य एवं धन में अभिवृद्धि होती हैं। यह
व्रत उत्तम पुण्यों को प्रदान करने वाला तथा समस्त प्रकार के पापों को नष्ट करने
वाला माना गया हैं। समस्त एकादशियों में ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे निर्जला एकादशी कहते हैं, वह सर्वोत्तम मानी
जाती हैं, किन्तु ज्येष्ठ मास की ही कृष्ण पक्ष की एकादशी अर्थात
अपरा एकादशी या अचला एकादशी भी प्रत्येक मनुष्यों को ब्रह्म हत्या, परनिंदा तथा भूत-प्रेत योनि आदि जैसे अनेक पाप-कर्मों से मुक्ति प्रदान
करने में सहायक मानी जाती हैं। अपरा एकादशी व्रत के प्रभाव से व्रती को अपार
खुशियों की प्राप्ति हैं। अपरा एकादशी का एक अर्थ यह भी हैं की, इस एकादशी के व्रत का पुण्य भी अपार हैं। अपरा एकादशी के दिन भगवान
विष्णु के त्रिविक्रम स्वरूप की पूजा की जाती हैं। इस दिन कच्चे आम अर्थात कैरी का
सागार लेना चाहिए।
अपरा एकादशी व्रत का पारण
एकादशी
के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब
तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण ना किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिवस सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता हैं।
ध्यान रहे,
१- एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व
करना अति आवश्यक हैं।
२- यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो
एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही करना चाहिए।
३- द्वादशी तिथि के भीतर पारण ना करना
पाप करने के समान माना गया हैं।
४- एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५- व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल का होता हैं।
६- व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान
के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७- जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें
व्रत समाप्त करने से पूर्व हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए।
हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती हैं।
८- यदि जातक, कुछ कारणों से प्रातःकाल
पारण करने में सक्षम नहीं हैं, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण
करना चाहिए।
इस वर्ष ज्येष्ठ
मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि 29 मई, बुधवार
की दोपहर 03 बजकर 21 मिनिट से प्रारम्भ हो कर, 30 मई, गुरुवार की साँय 04 बजकर 37 मिनिट तक व्याप्त रहेगी।
अतः इस वर्ष 2019 में अपरा एकादशी का व्रत 30 मई, गुरुवार
के शुभ दिन किया जाएगा।
इस वर्ष, अपरा
एकादशी व्रत का पारण अर्थात व्रत तोड़ने का शुभ समय, 31 मई, शुक्रवार की प्रातः 05 बजकर 44 मिनिट से 08 बजकर 22 मिनिट तक का रहेगा।
भगवान कार्तिकेय को स्कन्द देव के नाम से
भी जाना जाता हैं जिनको हिन्दू देवताओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं। स्कन्द
देव भगवान शिव तथा माँ पार्वती के पुत्र तथा भगवान श्री गणेश के बड़े भाई हैं।
भगवान स्कन्द को मुरुगन, कार्तिकेय तथा सुब्रहमन्य के नाम से जाना जाता हैं।
प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी
तिथि को भगवान स्कन्द के लिए उपवास रखा जाता हैं तथा पूजा अर्चना की जाती हैं। स्कन्द
षष्ठी को कन्द षष्ठी के नाम से भी जाना जाता हैं। इस दिन उपवास रखना अत्यंत महत्वपूर्ण
माना जाता हैं। स्कन्द षष्ठी का व्रत कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को
विशेष रूप से किया जाता हैं। 'तिथितत्त्व' ने चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी को 'स्कन्द षष्ठी'
के लिए विशेष कहा हैं। साथ मे कुछ लोग आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की
षष्ठी तिथि को स्कन्द षष्ठी श्रद्धा-पूर्वक मानते हैं। स्कंदपुराण के नारद-नारायण
संवाद में संतान प्राप्ति तथा संतान की पीड़ाओं का शमन करने वाले इस व्रत का विधान
बताया गया हैं। अतः यह व्रत 'संतान षष्ठी' नाम से भी जाना जाता हैं। एक दिन पूर्व से उपवास करके षष्ठी को 'कुमार' अर्थात् “कार्तिकेय” भगवान की पूजा करनी
चाहिए। तमिल एवम तेलुगु हिन्दुओं मे स्कन्द एक प्रसिद्ध देवता हैं। अतः बहरत के दक्षिणी
राज्यो में स्कन्दषष्ठी महत्त्वपूर्ण हैं।
षष्ठी तिथि जिस दिन पंचमी तिथि के साथ
मिल जाती हैं उस दिन स्कन्द षष्ठी का व्रत करना शुभ होता हैं। इसलिए स्कन्द षष्ठी
का व्रत पंचमी तिथि के दिन भी रखा जाता हैं। अन्य क्षेत्रों की तुलना में दक्षिण
भारत में स्कन्द षष्ठी को बड़े श्रद्धा भाव से मनाया जाता हैं। इस दिन लोग भगवान्
कार्तिकेय के लिए उपवास रखते हैं, उनकी पूजा करते हैं तथा
आशीर्वाद मांगते हैं। स्कन्द षष्ठी को कन्द षष्ठी के नाम से भी जाना जाता हैं।
यहाँ हम स्कन्द षष्ठी 2019 की तिथियां दे रहे हैं। जिनकी मदद से आप जान पाएंगे की
किस महीने की स्कन्द षष्ठी कौन से दिन पड़ रही हैं।
स्कन्द देव भगवान शिव तथा देवी पार्वती
के पुत्र तथा भगवान गणेश के छोटे भाई हैं। भगवान स्कन्द को मुरुगन, कार्तिकेय तथा सुब्रहमन्य के नाम से भी जाना जाता हैं।
षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द को समर्पित हैं।
शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन श्रद्धालु लोग उपवास करते हैं। षष्ठी तिथि जिस दिन
पञ्चमी तिथि के साथ मिल जाती हैं उस दिन स्कन्द षष्ठी के व्रत को करने के लिए
प्राथमिकता दी गयी हैं। इसीलिए स्कन्द षष्ठी का व्रत पञ्चमी तिथि के दिन भी हो
सकता हैं।
स्कन्द षष्ठी को कन्द षष्ठी के नाम से
भी जाना जाता हैं।
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के मध्य में जब
पञ्चमी तिथि समाप्त होती हैं या षष्ठी तिथि प्रारम्भ होती हैं तब यह दोनों तिथि
आपस में संयुक्त हो जाती हैं तथा इस दिन को स्कन्द षष्ठी व्रत के लिए चुना जाता हैं।
इस नियम का धरमसिन्धु तथा निर्णयसिन्धु में उल्लेख किया गया हैं। तिरुचेन्दुर में
प्रसिद्ध श्री सुब्रहमन्य स्वामी देवस्थानम सहित तमिल नाडु में कई मुरुगन मन्दिर
इसी नियम का अनुसरण करते हैं। अगर एक दिन पूर्व षष्ठी तिथि पञ्चमी तिथि के साथ
संयुक्त हो जाती हैं तो सूरसम्हाराम का दिन षष्ठी तिथि से एक दिन पहले देखा जाता हैं।
हालाँकि सभी षष्ठी तिथि भगवान मुरुगन को
समर्पित हैं किन्तु कार्तिक चन्द्र मास (ऐप्पासी या कार्तिकाई सौर माह) के दौरान
शुक्ल पक्ष की षष्ठी सबसे मुख्य होती हैं। श्रद्धालु इस दौरान छः दिन का उपवास
करते हैं जो सूरसम्हाराम तक चलता हैं। सूरसम्हाराम के बाद अगला दिन तिरु कल्याणम
के नाम से जाना जाता हैं।
सूरसम्हाराम के बाद आने वाली अगली स्कन्द
षष्ठी को सुब्रहमन्य षष्ठी के नाम से जाना जाता हैं जिसे कुक्के सुब्रहमन्य षष्ठी
भी कहते हैं तथा यह मार्गशीर्ष चन्द्र मास के दौरान पड़ती हैं।
आषाढ़ शुक्ल पक्ष तथा कार्तिक मास
कृष्णपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्द-षष्ठी के नाम से किया जाता हैं। पुराणों के
अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था इसलिए इस दिन स्कन्द भगवान
की पूजा का विशेष महत्व हैं, पंचमी से युक्त षष्ठी तिथि को
व्रत के श्रेष्ठ माना गया हैं व्रती को पंचमी से ही उपवास करना आरंभ करना चाहिए तथा
षष्ठी को भी उपवास रखते हुए स्कन्द भगवान की पूजा का विधान हैं।
इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता
स्वयं परिलक्षित होती हैं। इस कारण यह व्रत श्रद्धाभाव से मनाया जाने वाले पर्व का
रूप धारण करता हैं। स्कंद षष्ठी के संबंध में मान्यता हैं कि राजा शर्याति तथा
भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा हैं कहते हैं कि स्कंद षष्ठी की
उपासना से च्यवन ऋषि को आँखों की ज्योति प्राप्त हुई।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताया गया हैं कि
स्कंद षष्ठी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो जाता हैं। स्कन्द षष्ठी
पूजा की पौरांणिक परम्परा जुड़ी हैं, भगवान शिव के तेज से
उत्पन्न बालक स्कन्द की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी इनके छह मुख हैं तथा
उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा। पुराण व उपनिषद में इनकी महिमा का
उल्लेख मिलता हैं।
स्कन्दा षष्ठी तथा कंद षष्टी 2019
त्यौहार का इतिहास
स्कन्दा षष्ठी यह त्यौहार दक्षिण भारत में महत्वपूर्णतौर पर तमिल में
मनाया जाता हैं। अधिकांश अन्य हिंदू त्योहारों की तरह स्कंद षष्ठी भी बुराई पर
अच्छाई की जीत का प्रतिक हैं। स्कंद जिन्हें हम
भगवान मुरूगन, सुब्रमण्य तथा कार्तिकेय के रूप में
जानते हैं। स्कन्द पुराण में स्कन्द षष्टि का उपवास का महत्व मिलता हैं।
स्कन्दा षष्ठी त्यौहार इतिहास
स्कन्द पुराण सभी अठारह पुराणों की भांति
ही विशाल हैं जिसमे तारकासुर, सुरपद्मा, सिम्हामुखा ने देवताओं को हराया तथा उन्हें पृथ्वी पर लाकर खड़ा कर दिया।
उन राक्षसों ने पृथ्वी पर आतंक मचा रखा था। उन्हें देवताओं तथा मनुष्यों को
प्रताड़ित करने उत्साह मिलता था, उन्होंने सब कुछ नष्ट कर
दिया, जो भी देवताओं का था, जो भी
उन्हें पूजता था, उन्होंने उन्हें भी नष्ट कर दिया। उन्ही
राक्षसों में से एक सुरपद्मा को वरदान प्राप्त था, कि उसे
भगवान शिव का पुत्र ही मार सकता हैं। तथा उस समय देवी सती के अग्नि को प्राप्त हो
जाने के कारण भगवान शिव नाराज थे तथा घोर तप में लीन थे, यही
कारण था कि वे सभी राक्षसों को किसी का भय नहीं था।
राक्षसों के आतंक से परेशान होकर देवता
ब्रह्मा जी के पास गए तथा इस विपदा के लिये सहायता की मांग की। तब ब्रह्मा जी ने
काम देव से कहा, कि तुम्हे भगवान शिव को योग निंद्रा से जगाना
होगा। इस कार्य में अत्यंत संकट था, क्यूंकि भगवान शिव के
क्रोध से बच पाना मुश्किल था। किन्तु संकट अत्यंत बड़ा था, इसलिए
काम देव ने इस कार्य को किया। जिसमे वे सफल हुये, किन्तु
भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुल जाने के कारण, उनकी क्रोधाग्नि
से काम देव को भस्म कर दिया।
उस समय भगवान शिव का अंश छह भागों में
बंट गया, जो कि गंगा नदी में गिरा। देवी गंगा ने उन छह अंशों
को जंगल में रखा तथा उनसे छह पुत्रों का जन्म हुआ, जिन्हें
कई वर्षों बाद देवी पार्वती ने एक कर भगवान मुरुगन को बनाया। पुराण के अनुसार
भगवान मुरुगन स्वामी के कई रूप हैं, जिनमे एक चेहरा दो हाथ,
एक चेहरा चार हाथ,छह चेहरे तथा बारह हाथ हैं।
दूसरी तरह राक्षसों का आतंक बढ़ता जा रहा
था। उन्होंने कई देवताओं को बंदी बना लिया था। उनके इसी आतंक के कारण भगवान ने
इनके संहार का निर्णय लिया। कई दिनों तक यह युद्ध चलता रहा। तथा अंतिम दिन भगवान
मुरुगन ने सुरपद्मा राक्षस का वध कर दिया, साथ ही संसार का तथा
देवताओं का उद्धार किया। तथा राक्षसों के आतंक से सभी को मुक्त कराया।
यह दिन था स्कंदा षष्टि जिसे बुराई पर
अच्छाई की जीत का प्रतिक माना जाता हैं तथा उत्साह से मनाया जाता हैं आज भी इसे
बड़ी श्रद्धा से दक्षिण भारत में मनाया जाता हैं।
भगवान मुरुगन को कई नामों से जाना जाता
हैं जैसे कार्तिकेय, मुरुगन स्वामी उन्ही में से एक हैं
स्कन्द। इसलिए इस दिवस को सक्न्दा षष्ठी के नाम से जाना जाता हैं।
स्कंदा षष्टि 2019 में कब मनाया जाता
हैं?
यह त्यौहार तमिल एवम
तेलुगु लोगो द्वारा मनाया जाता हैं। यह प्रति मास मनाया जाता हैं जब शुक्ल
पक्ष की पंचमी तथा षष्ठी एक साथ आती हैं तब स्कन्दा षष्ठी या कंद षष्टी मनाई जाती
हैं।
जब पंचमी तिथी खत्म होकर षष्ठी तिथी शुरू
होती हैं, तब सूर्योदय तथा सूर्यास्त के मध्य यह स्कन्दा
तिथी की शुरुवात होती हैं। यह नियम धर्मसिंधु तथा निर्णयसिंधु से लिया गया हैं।
इसे तमिल एवम तेलुगु प्रान्त में भगवान मुरुगन के मंदिर में मनाया जाता हैं। इसमें
श्रद्धालु उपवास रखते हैं।
यह त्यौहार तमिल कैलेंडर के अनुसार
ऐप्पसी मास में मनाया जाता हैं, यह त्यौहार छः दिनों तक
मनाया जाता हैं इनमे कई नियमों का पालन किया जाता हैं।
स्कंद षष्ठी महत्व
स्कंद शक्ति के अधिदेव हैं, देवताओं ने इन्हें अपना सेनापतित्व प्रदान किया मयूरा पर आसीन देवसेनापति
कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत मे सबसे ज्यादा होती हैं, यहां पर यह मुरुगन नाम से विख्यात हैं। प्रतिष्ठा, विजय,
व्यवस्था, अनुशासन सभी कुछ इनकी कृपा से
सम्पन्न होते हैं। स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय
ही हैं तथा यह पुराण सभी पुराणों में सबसे विशाल हैं।
स्कंद भगवान हिंदु धर्म के प्रमुख देवों
मे से एक हैं, स्कंद को कार्तिकेय तथा मुरुगन नामों से भी
पुकारा जाता हैं। दक्षिण भारत में पूजे जाने वाले प्रमुख देवताओं में से एक भगवान
कार्तिकेय शिव पार्वती के पुत्र हैं, कार्तिकेय भगवान के अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा
मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों तथा विशेषकर तमिलनाडु में होती हैं। भगवान स्कंद
के सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिलनाडू में ही स्थित हैं।
कैसे मनाते हैं स्कन्दा षष्ठी? स्कंद षष्ठी पूजन
स्कंद षष्ठी इस अवसर पर शंकर-पार्वती को
पूजा जाता हैं। मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती हैं।इसमें स्कंद देव
स्थापना करके पूजा की जाती हैं तथा अखंड दीपक जलाए जाते हैं। भक्तों द्वारा स्कंद
षष्ठी महात्म्य का नित्य पाठ किया करते हैं। भगवान को स्नान, पूजा, नए वस्त्र पहनाए जाते हैं। इस दिन भगवान को भोग लगाते हैं, विशेष कार्य की सिद्धि के लिए इस समय कि गई पूजा-अर्चना विशेष फलदायी होती
हैं। इस में साधक तंत्र साधना भी करते हैं, इस में मांस,
शराब, प्याज, लहसुन का
त्याग करना चाहिए तथा ब्रह्मचार्य का संयम रखना आवश्यक होता हैं।
1
इन दिनों मांसाहार का सेवन नही किया जाता
2
कई लोग प्याज, लहसन का प्रयोग नहीं करते
3
जो भी श्रद्धालु यह उपवास करते हैं वो मुरुगन का पाठ, कांता
षष्ठी कवसम एवम सुब्रमणियम भुजंगम का पाठ करते हैं
4
कई लोग सुबह से स्कन्दा मंदिर जाते हैं
5
कई लोग स्कन्दा उपवास के दिनों में एक वक्त का उपवास भी करते हैं जिनमे कई दोपहर
में भोजन करते हैं एवम कई रात्रि में
6
कई श्रद्धालु पुरे छः दिनों में फलाहार करते हैं
यह उपवास कई तरह से किया जाता हैं कई लोग
इसे शरीर के शुद्धिकरण के रूप में भी करते हैं जिससे शरीर के सभी टोक्सिन शरीर से
बाहर निकल जाते हैं। कई लोग नारियल पानी पीकर भी छः दिनों तक रहते हैं।
व्रत एक नियंत्रण के रूप में भी किया
जाता हैं जिसमे मनुष्य स्वयं को कई व्यसनों से दूर रखता हैं। झूठ बोलने, लड़ने- झगड़ने का परहेज रखता हैं तथा ध्यान करके अपने आपको मजबूत बनाते हैं।
अगर श्रद्दालु को किसी भी तरह की बीमारी
हैं तो उसे कभी उपवास नहीं करना चाहिए क्यूंकि ईश्वर कभी अपने बच्चो को कष्ट में
नहीं देखना चाहता।
स्कंद कथा
कार्तिकेय की जन्म कथा के विषय में
पुराणों में ज्ञात होता हैं कि जब दैत्यों का अत्याचार तथा आतंक फैल जाता हैं तथा
देवताओं को पराजय का समाना करना पड़ता हैं जिस कारण सभी देवता भगवान ब्रह्मा जी के
पास पहुंचते हैं तथा अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करते हैं ब्रह्मा उनके दुख का
जानकर उनसे कहते हैं कि तारक का अंत भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव हैं परंतु
सती के अंत के पश्चात भगवान शिव गहन साधना में लीन हुए रहते हैं।
इंद्र तथा अन्य देव भगवान शिव के पास
जाते हैं, तब भगवान शिव उनकी पुकार सुनकर पार्वती से विवाह
करते हैं। शुभ घड़ी तथा शुभ मुहूर्त में शिव जी तथा पार्वती का विवाह हो जाता हैं।
इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता हैं तथा कार्तिकेय तारकासुर का वध करके
देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं।
भगवान मुरुगन के प्रसिद्ध मन्दिर
निम्नलिखित छः आवास जिसे आरुपदै विदु के
नाम से जाना जाता हैं, इण्डिया के तमिल नाडु प्रदेश में
भगवान मुरुगन के भक्तों के लिए अत्यंत ही मुख्य तीर्थस्थानों में से हैं।
पलनी मुरुगन मन्दिर (कोयंबटूर से १००
किमी पूर्वी-दक्षिण में स्थित)
स्वामीमलई मुरुगन मन्दिर (कुंभकोणम के
पास)
तिरुत्तनी मुरुगन मन्दिर (चेन्नई से ८४
किमी)
पज्हमुदिर्चोलाई मुरुगन मन्दिर (मदुरई से
१० किमी उत्तर में स्थित)
श्री सुब्रहमन्य स्वामी देवस्थानम,
तिरुचेन्दुर (तूतुकुडी से ४० किमी दक्षिण में स्थित)
तिरुप्परनकुंद्रम मुरुगन मन्दिर (मदुरई
से १० किमी दक्षिण में स्थित)
मरुदमलै मुरुगन मन्दिर (कोयंबतूर का
उपनगर) एक तथा प्रमुख तीर्थस्थान हैं।
इण्डिया के कर्णाटक
प्रदेश में मंगलौर शहर के पास कुक्के सुब्रमण्या मन्दिर भी अत्यंत प्रसिद्ध
तीर्थस्थान हैं जो भगवान मुरुगन को समर्पित हैं किन्तु यह भगवान मुरुगन के उन छः
निवास स्थान का हिस्सा नहीं हैं जो तमिल नाडु में स्थित हैं।
संत श्री सूरदास का जन्मोत्सव | Surdas ki Jivani Parichay in Hindi | सूरदास जीवनी | सूरदास जी का जीवन परिचय
kavi surdas jivan parichay
सूरदास जिसने जगत को दिखाई श्री
कृष्णलीला
महाकवि सूरदास जिन्होंने जन-जन को प्रभु श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से
परिचित करवाया। जिन्होंनें जन-जन में वात्सल्य का भाव जगाया। नंदलाल व यशोमति मैया
के लाडले को बाल गोपाल बनाया। कृष्ण भक्ति की धारा में सूरदास का नाम सर्वोपरि
लिया जाता हैं। सूरदास जिन्हें बताया तो जन्मांध जाता हैं लेकिन जो उन्होंने देखा
वो कोई न देख पाया। गुरु वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले कि वे इस
मार्ग के जहाज तक कहाये। अपने गुरु की कृपा से प्रभु श्रीकृष्ण की जो लीला सूरदास
ने देखी उसे उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम भी देखते हैं। वैशाख शुक्ल पंचमी
को सूरदास जी की जयंती मनाई जाती हैं।
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय:-
सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता हैं। उन्होंने कृष्ण की
लीलाओं पर पद लिखे व गाये। यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी उनके गुरु वल्लभाचार्य
ने। सूरदास के जन्म को लेकर विद्वानों के मत भिन्न-भिन्न हैं। कुछ उनका जन्म स्थान
गाँव सीही को मानते हैं जो कि वर्तमान में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में पड़ता हैं
तो कुछ मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम को उनका जन्मस्थान मानते हैं।
मान्यता हैं कि 1478 ई. में इनका जन्म हुआ था। सूरदास एक निर्धन
सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे। इनके जन्मांध
होने को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। देखा जाये तो इनकी रचनाओं में जो सजीवता हैं
जो चित्र खिंचते हैं, जीवन के विभिन्न रंगों की जो बारीकियां
हैं उन्हें तो अच्छी भली नज़र वाले भी बयां न कर सकें इसी कारण इनके अंधेपन को
लेकर शंकाएं जताई जाती हैं। इनके बारे में प्रचलित हैं कि ये बचपन से साधु प्रवृति
के थे। इन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में प्राप्त हुई थी। शीघ्र ही ये अत्यंत प्रसिद्ध
भी हो गए थे। लेकिन इनका मन वहाँ नहीं लगा तथा अपने गाँव को छोड़कर समीप के ही गाँव
में तालाब किनारे रहने लगे। शीघ्र ही ये वहाँ से भी चल पड़े तथा आगरा के पास गऊघाट
पर रहने लगे। यहां ये शीघ्र ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। यहीं पर इनकी
मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी तथा श्रीकृष्ण
की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में
लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।
कैसे हुई सूरदास की मृत्यु:-
मान्यता हैं कि इन्हें अपने देहावसान का आभास पहले से ही हो गया था।
इनकी मृत्यु का स्थान गाँव पारसौली माना जाता हैं। मान्यता हैं कि यहीं पर प्रभु श्रीकृष्ण
ने रासलीला की थी। श्री नाथ जी की आरती के समय जब सूरदास वहाँ मौजूद नहीं थे तो
वल्लाभाचार्य को आभास हो गया था कि सूरदास का अंतिम समय निकट हैं। उन्होंने अपने
शिष्यों को संबोधित करते हुए इसी समय कहा था कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा हैं
जिसे जो लेना हो ले सकता हैं। आरती के बाद सभी सूरदास जी के निकट आये। तो अचेत
पड़े सूरदास जी में चेतना आयी। कहते हैं कि जब उनसे सभी ज्ञान ग्रहण कर रहे थे तो
चतुर्भुजदास जो कि वल्लाभाचार्य के ही शिष्य थे ने शंका प्रकट की कि सूरदास ने
सदैव भगवद्भक्ति के पद गाये हैं गुरुभक्ति में कोई पद नहीं गाया। तब उन्होंने कहा
कि उनके लिये गुरु व प्रभु में कोई अंतर नहीं हैं जो प्रभु के लिये गाया वही गुरु
के लिये भी। तब उन्होंने भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो नामक पद गाया। इसके बाद चित्त तथा
नेत्र की वृति को लेकर विट्ठलनाथ जी द्वारा पूछे प्रश्न पर बलि बलि हों कुमरि
राधिका नंद सुवन जासों रति मानी तथा खंजन नैन रूप रस माते पद गाये। यही उनके अंतिम
पद भी थे जो उन्होंने गाये। इसके बाद पुष्टिमार्ग का जहाज़ गोलोक को गमन कर गया।
कब मनाई जाती हैं सूरदास जी की
जयंती :-
सूरदास की जन्मतिथि को लेकर पहले मतभेद था, लेकिन पुष्टिमार्ग के अनुयायियों में प्रचलित धारणा के अनुसार सूरदास जी
को उनके गुरु वल्लाभाचार्य जी से दस दिन छोटा बताया जाता हैं। वल्लाभाचार्य जी की
जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी को मनाई जाती हैं। इसके गणना के अनुसार सूरदास का जन्म
वैशाख शुक्ल पंचमी को माना जाता हैं। इस कारण प्रत्येक वर्ष सूरदास जी की जयंती
इसी दिन मनाई जाती हैं। अंग्रेजी कलैंडर के अनुसार वर्ष 2019 में सूरदास जयंती 9 मई को हैं।
शनिदेव को प्रसन्न करने के उपाय shanidev ko kaise prasann kare
shanidev ko kaise prasann kare
सनातन हिन्दु पंचांग में नये चन्द्रमा
के दिवस को अमावस्या कहते हैं। यह एक महत्वपूर्ण दिवस होता हैं क्योंकि कई धार्मिक
कृत्य केवल अमावस्या तिथि के दिवस ही किये जाते हैं।
अमावस्या जब सोमवार के दिवस आती हैं तो
उसे सोमवती अमावस्या कहते हैं तथा अमावस्या जब शनिवार के दिवस आती हैं तो उसे शनि
अमावस्या कहते हैं।
पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए
अमावस्या के समस्त दिवस श्राद्ध की रस्मों को करने के लिए उपयुक्त हैं। कालसर्प
दोष निवारण की पूजा करने के लिए भी अमावस्या का दिवस उपयुक्त होता हैं।
• इस दिवस पीपल के पेड़ पर सात प्रकार
का अनाज चढ़ाएं तथा सरसों के तेल का दीपक जलाएं।
• तिल से बने पकवान, उड़द से बने पकवान गरीबों को दान करें।
• उड़द दाल की खिचड़ी दरिद्रनारायण को
दान करें।
• अमावस्या की रात्रि में 8 बादाम तथा
8 काजल की डिब्बी काले वस्त्र में बांधकर संदूक में रखें।
• शनि यंत्र, शनि
लॉकेट, काले घोड़े की नाल का छल्ला धारण करें।
• इस दिवस नीलम या कटैला रत्न धारण
करें। जो फल प्रदान करता हैं।
• काले रंग का श्वान को भोजन दे।अगर हो
सके इस दिवस से पालें तथा उसकी सेवा करें। अत्यंत ही फायदेमंद साबित होगा।
💥पवित्र
नदी के जल से या नदी में स्नान कर शनिदेव का आवाहन तथा उनके दर्शन करे।
💥श्री
शनिदेव का आह्वान करने के लिए हाथ में नीले पुष्प, बेल पत्र,
अक्षत व जल लेकर इस मंत्र अदभुद वैदिक मंत्र का जाप करते हुए
प्रार्थना करें-
"ह्रीं नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं
यमाग्रजम्।
छायार्मात्ताण्डसंभूतं तं नमामि
शनैश्चरम्"।।
🌿ह्रीं
बीजमय, नीलांजन सदृश आभा वाले, रविपुत्र,
यम के अग्रज, छाया मार्तण्ड स्वरूप उन शनि को
मैं प्रणाम करता हूं तथा मैं आपका आह्वान करता हूँ॥
🔥शनि
अमावस्या के दिवस प्रात: जल में चीनी एवं काला तिल मिलाकर पीपल की जड़ में अर्पित
करके सात परिक्रमा करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं।
🔥शनिदेव को
प्रसन्न करने का सबसे अनुकूल मंत्र हैं --
"ॐ शं शनैश्चराय नम:।"
इस मंत्र की एक माला का जाप अवश्य करेंइस दिवस आप श्री शनिदेव के दर्शन जरूर करें।
🔥शनिदेव की
दशा में अनुकूल फल प्राप्ति कराने वाला मंत्र
ॐ प्रां प्रीं प्रौं शं शनैश्चराय नम:
🔥शनि
अमावस्या के दिवस संध्या के समय पीपल के पेड़ पर सप्तधान / सात प्रकार का अनाज
चढ़ाएं तथा सरसों या तिल के तेल का दीपक जलाएं, इससे कुंडली
के ग्रहो के अशुभ फलो में कमी आती हैं। जीवन से अस्थिरताएँ दूर होती हैं।
🔥शनि
अमावस्या के दिवस बरगद के पेड की जड में गाय का कच्चा दूध चढाकर उस मिट्टी से तिलक
करें। अवश्य धन प्राप्ति होगी।
🔥उड़द की
दाल की काला नमक डाल कर खिचड़ी बनाकर संध्या के समय शनि मंदिर में जाकर भगवान शनिदेव
का भोग लगाएं फिर इसे प्रसाद के रूप में बाँट दें तथा स्वयं भी प्रसाद के रूप में
ग्रहण करें।
🔥शनिवार के
दिवस काले उड़द की दाल की खिचड़ी काला नमक डाल कर खाएं इससे भी शनि दोष के कारण
होने वाले कष्टों में कमी आती हैं।
🔥इस दिवस
मनुष्य को सरसों का तेल, उडद, काला तिल,
देसी चना, कुलथी, गुड
शनियंत्र तथा शनि संबंधी समस्त पूजा सामग्री अपने ऊपर वार कर शनिदेव के चरणों में
चढाकर शनिदेव का तैलाभिषेक करना चाहिए।
🔥शनिश्चरी
अमावस्या को सुबह या शाम शनि चालीसा का पाठ या हनुमान चालीसा , बजरंग बाण का पाठ करें।
🔥तिल से
बने पकवान, उड़द से बने पकवान गरीबों को दान करें तथा
पक्षियों को खिलाएं
।
🔥उड़द दाल
की खिचड़ी दरिद्रनारायण को दान करें।
🔥अमावस्या
की रात्रि में 8 बादाम तथा 8 काजल की डिब्बी काले वस्त्र में बांधकर संदूक में
रखें। इससे आर्थिक संकट दूर होते हैं नौकरी, व्यापार में
धनलाभ, सफलता की प्राप्ति होती हैं।
🔥शनि
अमावस्या के दिवस संपूर्ण श्रद्धा भाव से पवित्र करके घोडे की नाल या नाव की पेंदी
की कील का छल्ला मध्यमा अंगुली में धारण करें।
🔥शनि
अमावस्या के दिवस 108 बेलपत्र की माला भगवान शिव के शिवलिंग पर चढाए। साथ ही अपने
गले में गौरी शंकर रुद्राक्ष 7 दानें लाल धागें में धारण करें।
🔥जिनके ऊपर
शनि की अशुभ दशा हो ऐसे जातक को मांस , मदिरा, बीडी- सिगरेट नशीला पदार्थ आदि का सेवन न करे।