पौष पुत्रदा एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Pausha Putrada Ekadashi 2019 | Saphala Ekadashi Vrat in Hindi #EkadashiVrat
pausha putrada ekadashi vrat katha in hindi |
वैदिक विधान कहता हैं की, दशमी
को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना
चाहिए। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती हैं।
प्रत्येक एकादशी का भिन्न भिन्न महत्व होता हैं तथा प्रत्येक एकादशीयों की एक
पौराणिक कथा भी होती हैं। एकादशियों को वास्तव में मोक्षदायिनी माना गया हैं।
भगवान श्रीविष्णु जी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई हैं चाहे वह कृष्ण पक्ष की
हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले प्रत्येक भक्तों पर
प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती हैं, अतः प्रत्येक
एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करते
हैं तथा व्रत रखते हैं, साथ ही रात्री जागरण भी करते हैं।
किन्तु इन प्रत्येक एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी हैं जिसका का व्रत प्रतिवर्ष दो
बार, पौष तथा
श्रावण, के मास में किया जाता हैं। यह व्रत पुत्र प्राप्ति
के लिए रखा जाता हैं। अतः पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पौष पुत्रदा एकादशी तथा
श्रावण मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को श्रावण पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता
हैं। जिन व्यक्तियों को संतान होने में बाधाएं आती हैं अथवा जो व्यक्ति पुत्र
प्राप्ति की इच्छा रखते हैं उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत अत्यंत शुभफलदायक
होता हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो जातक एकादशी का व्रत नियमित रखते हैं उन्हे
भगवान् श्री नारायण की विशेष कृपा निरंतर प्राप्त होती रहती हैं। पद्म पुराण के
अनुसार सांसारिक सुखों की प्राप्ति तथा पुत्र इच्छुक भक्तों के लिए पुत्रदा एकादशी
व्रत को विशेष फलदायक माना जाता हैं। अतः संतानहीन या पुत्र हीन जातको के लिए इस
व्रत को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया हैं। इस व्रत के प्रभाव से संतान की रक्षा भी
होती हैं। अतः महिला वर्ग में इस व्रत का अत्यंत विशेष प्रचलन तथा महत्व हैं। पौष
पुत्रदा एकादशी के देवता सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्री विष्णु जी हैं। अतः इस व्रत
में भगवान नारायण के बाल-गोपाल स्वरूप का पूजन किया जाता हैं। पौष पुत्रदा एकादशी के
व्रत का पालन जो जातक पूर्ण श्रद्धा से करता हैं, उसे भगवान
विष्णु से विद्वान, लक्ष्मीवान तथा पुत्रवान होने का वरदान प्राप्त
होता हैं।
पौष
पुत्रदा एकादशी का व्रत कब किया जाता हैं?
सनातन हिन्दू
पंचाङ्ग के अनुसार पौष पुत्रदा एकादशी का व्रत सम्पूर्ण भारत-वर्ष में पौष मास के शुक्ल
पक्ष के एकादशी के दिन किया जाता हैं। वहीं, अङ्ग्रेज़ी कलेंडर के अनुसार यह व्रत जनवरी या फरवरी के महीने में आता
हैं।
पौष
पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व
पद्मपुराणके
उत्तरखण्ड में एकादशी के व्रत के महत्व को पूर्ण रुप से बताया गया हैं। पौष
पुत्रदा एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार फल प्रदान करता हैं। जिन व्यक्तियों को संतान होने में
बाधाएं आती हैं अथवा जो व्यक्ति पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखते हैं उनके लिए
पुत्रदा एकादशी का व्रत अत्यंत शुभफलदायक होता हैं। अतः यह व्रत पुत्र
प्रदायक माना गया हैं। पद्म पुराण
के अनुसार सांसारिक सुखों की प्राप्ति तथा पुत्र इच्छुक भक्तों के लिए पुत्रदा
एकादशी व्रत को विशेष फलदायक माना जाता हैं। अतः संतानहीन या पुत्र हीन जातको के
लिए इस व्रत को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया हैं। इस व्रत के प्रभाव से संतान की
रक्षा भी होती हैं। अतः महिला वर्ग में इस व्रत का अत्यंत विशेष प्रचलन तथा महत्व
हैं। पौष पुत्रदा एकदशी का व्रत रखने से जातक को अपनी समस्त इच्छाओं तथा स्वप्नों
को पूर्ण करने में सहायता प्राप्त होती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो जातक एकादशी का व्रत नियमित रखते हैं उन्हे
भगवान् श्री नारायण की विशेष कृपा निरंतर प्राप्त होती रहती हैं। पौष
पुत्रदा एकदशी का महत्व “ब्रह्मांड पुराण” में
धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान कृष्ण के बीच बातचीत के रूप में वर्णित हैं। पौष
पुत्रदा एकदशी का दिन एक ऐसे व्रत के रूप में वर्णित हैं की,
जिस दिन व्रत रखने से समस्त दुःखों की समाप्ति होती हैं तथा भाग्य शीघ्र उदित हो जाता
हैं। हिन्दू धर्मानुसार इस व्रत के पुण्य
से मनुष्य के प्रत्येक कार्य सफल होते हैं तथा उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। पद्मपुराण
में कहा गया हैं कि विष्णु भगवान को पौष पुत्रदा एकादशी के अनुष्ठान से अत्यंत
शीघ्र प्रसन्न किया जा सकता हैं। युधिष्ठिर के पूछने पर भगवान श्रीकृष्ण जी ने
स्वयं बताया हैं की, “बडे-बडे यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष
नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता हैं।” अतः एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए
अनिवार्य बताया गया हैं। एकादशी के दिन सूर्य तथा अन्य ग्रह अपनी स्थिती में
परिवर्तित होते हैं, जिसका
प्रत्येक मनुष्य की इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता हैं। इन विपरीत प्रभाव में संतुलन
बनाने हेतु व्रत किया जाता हैं। व्रत तथा ध्यान ही मनुष्यो में संतुलित रहने का
गुण विकसित करते हैं। पौष पुत्रदा एकादशी के महत्व का वर्णन “ब्रह्मवैवर्त पुराण” में भी प्राप्त होता हैं,
तथा इस एकादशी को मेरूपर्वत के समान जो बड़े-बड़े पाप हैं उनसे
मुक्ति प्राप्त करने हेतु सर्वाधिक आवश्यक माना गया हैं। उन समस्त पाप-कर्मो को यह
पापनाशिनी पौष पुत्रदा एकादशी एक ही उपवास में भस्म कर देती हैं। ब्रह्मवैवर्त
पुराण के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि हजारों वर्षो की तपस्या से जो फल
नहीं प्राप्त होता, वह फल इस व्रत से प्राप्त हो जाता हैं।
जो व्यक्ति निर्जल संकल्प लेकर पौष पुत्रदा एकादशी व्रत रखता हैं, उसे मोक्ष के साथ भगवान विष्णु की प्राप्ति होती हैं। पूर्ण श्रद्धा-भाव
से यह व्रत करने से जाने-अनजाने में किये जातक के समस्त पाप क्षमा होते हैं,
तथा उसे मुक्ति प्राप्त होती हैं। श्रीकृष्ण जी आगे बताते हैं कि इस
दिवस दान का विशेष महत्व होता हैं। जातक यदि अपनी इच्छा से अनाज, जूते-चप्पल, छाता, कपड़े,
पशु या सोना का दान करता हैं, तो इस व्रत का
फल उसे पूर्णतः प्राप्त होता हैं। अतः पौष पुत्रदा एकादशी व्रत के दिवस यथासंभव
दान व दक्षिणा देनी चाहिए। जो जातक पौष पुत्रदा एकादशी का सच्ची श्रद्धा-भाव से
व्रत करते हैं, उनके पितर नरक के दु:खों से मुक्त हो कर
भगवान विष्णु के परम धाम अर्थात विष्णुलोक को चले जाते हैं। साथ ही जातक को
सांसारिक जीवन में सुख शांति, ऐश्वर्य, धन-सम्पदा तथा अच्छा परिवार प्राप्त होता हैं। जो मनुष्य जीवन-पर्यन्त
एकादशी को उपवास करता हैं, वह मरणोपरांत वैकुण्ठ जाता हैं।
श्रीकृष्ण जी यह भी बताते हैं कि इस व्रत के प्रभाव से जातक को मृत्यु के पश्चात
नरक में जाकर यमराज के दर्शन कदापि नहीं होते हैं, किन्तु
सीधे स्वर्ग का मार्ग खुलता हैं। जो मनुष्य पौष पुत्रदा एकादशी का व्रत रखता हैं,
उसे अच्छा स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, सम्पति, उत्तम बुद्धि,
राज्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता हैं। विष्णु जी के भक्तो के लिए,
इस एकादशी का विशेष महत्व हैं। जो जातक पौष पुत्रदा एकादशी के दिन
भगवान श्रीविष्णु की कथा का श्रवण करता हैं, उसे सातों
द्वीपों से युक्त पृथ्वी दान करने का फल प्राप्त होता हैं। इस दिवस उपवास रखने से
पुण्य फलों की प्राप्ति होती हैं, साथ ही व्रत के प्रभाव से
जातक का शरीर भी स्वस्थ रहता हैं। जो व्यक्ति पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते
उनके लिए मध्याह्न या संध्या-काल में एकाहार अर्थात एक समय भोजन करके एकादशी व्रत
करने का विधान हैं। एकादशी में अन्न का सेवन करने से पुण्य का नाश होता हैं तथा
भारी दोष लगता हैं। एकादशी-माहात्म्य को सुनने मात्र से सहस्र गोदानोंका पुण्यफल
प्राप्त होता हैं। पौराणिक ग्रंथो के अनुसार एकादशी का व्रत जीवों के परम लक्ष्य,
भगवद-भक्ति को प्राप्त करने में सहायक माना गया हैं। अतः एकादशी का
दिन प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से भक्ति करने के लिए अति शुभकारी तथा फलदायक हैं। इस
दिवस जातक अपनी इच्छाओं से मुक्त हो कर यदि शुद्ध चित्त से प्रभु की पूर्ण-भक्ति
से सेवा करता हैं तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपा के पात्र बनता हैं। पौष पुत्रदा
एकादशी व्रत की कथा सुनने, सुनाने तथा पढने मात्र से 100
गायो के दान के तुल्य पुण्य-फलो की प्राप्ति होती हैं। अतः पौष पुत्रदा एकादशी
मुक्तिदायिनी होने के साथ ही समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली माना जाती हैं।
पौष पुत्रदा एकादशी व्रत पूजन सामग्री
⧴ भगवान के लिए पीला वस्त्र
⧴ श्री विष्णु जी की मूर्ति
⧴ शालिग्राम भगवान की मूर्ति
⧴ पुष्प तथा पुष्पमाला
⧴ नारियल तथा सुपारी
⧴ धूप, दीप तथा घी
⧴ पंचामृत (दूध (कच्चा दूध), दही, घी, शहद तथा शक्कर का
मिश्रण)
⧴ अक्षत
⧴ तुलसी पत्र
⧴ चंदन
⧴ कलश
⧴ प्रसाद के लिए मिष्ठान तथा ऋतुफल
पौष पुत्रदा एकादशी व्रत की पूजा विधि
पौष पुत्रदा एकादशी के देवता
सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्री विष्णु जी हैं। अतः इस व्रत में भगवान विष्णु तथा
विशेषकर भगवान विष्णु जी के बाल गोपाल स्वरूप की पूर्ण
विधि-विधान के साथ पूजा करनी
चाहिए।
एकादशी का व्रत
रखने वाले भक्तो को अपना मन शांत एवं स्थिर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की
द्वेष-भावना या क्रोध को मन में नहीं लाना चाहिए। इस दिन विशेष रूप से व्रती को
बुरे कर्म करने वाले, पापी
तथा दुष्ट व्यक्तियों की संगत से बचना चाहिये। परनिंदा से बचना चाहिए तथा इस दिन
कम से कम बोलना चाहिए, जिस से मुख से कोई गलत बात ना निकल
पाये। तथापि यदि जाने-अंजाने कोई भूल हो जाए, तो उसके लिये
भगवान श्री हरि से क्षमा मांगते रहना चाहिए।
pausha putrada ekadashi |
प्रत्येक
एकादशी व्रत का विधान स्वयं श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा हैं। व्रत की विधि
बताते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि एकादशी व्रतों के नियमों का पालन दशमी तिथि से
ही प्रारम्भ किया जाता हैं, अतः
दशमी तिथि के दिन में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए तथा साँयकाल में सूर्यास्त के
पश्चात भोजन नहीं करना चाहिए एवं रात्रि में भोग विलास को त्याग कर एवं पूर्ण
ब्रह्मचर्य का पालन तथा नारायण की छवि मन में बसाए हुए, भगवान
का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए। दशमी के दिन से ही, चावल, उरद, चना, मूंग, जौ, मसूर, लहसुन, शराब तथा अन्य नशीली चीजो का सेवन नहीं करना चाहिए।
अगले दिन
अर्थात एकादशी व्रत के दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से पवित्र होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूजा-घर को शुद्ध कर लेना
चाहिए। इसके पश्चात आसन पर बैठकर व्रत संकल्प लेना चाहिए कि “मैं आज समस्त भोगों को त्याग कर, निराहार एकादशी का
व्रत करुंगा, हे प्रभु मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा करें। तथा मेरे समस्त पाप क्षमाँ करे।” संकल्प लेने के पश्चात कलश स्थापना की जाती हैं तथा उसके ऊपर भगवान
श्रीविष्णु जी की मूर्ति या प्रतिमा रखी जाती हैं। उसके पश्चात शालिग्राम भगवान को
पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए एवं पुष्प तथा ऋतु फल का भोग लगायें तथा
शालिग्राम पर तुलसी-पत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। उसके पश्चात धूप, दीप, गंध, कमल अथवा वैजयन्ती
पुष्प, गंगा जल, पंचामृत, नैवेद्य, मिठाई, नारियल, सुपारी, सुंदर आंवला, बेर, अनार, आम आदि जैसे ऋतु-फल से भगवान विष्णु का पूजन
करने का विधान हैं। अतः भगवान लक्ष्मी नारायण जी की विधिवत पूजन-आरती करनी चाहिए। साथ
ही, धन प्राप्ति तथा आर्थिक समृद्धि के लिए पौष पुत्रदा
एकादशी के दिन माँ लक्ष्मीजी की भी पूजा करनी चाहिए। प्रसाद के रूप में पंचामृत का
समस्त श्रद्धालुओ में वितरण करना चाहिए। इस दिन श्रीखंड चंदन अथवा सफ़ेद चन्दन या
गोपी चन्दन मस्तक पर लगाकर पूजन करना चाहिए।
व्रत के दिन
अन्न वर्जित हैं। अतः निराहार रहें तथा सध्याकाल में पूजा के पश्चात चाहें तो फलाहार
कर सकते हैं। फल तथा दूध खा कर एवं सम्पूर्ण दिवस चावल तथा अन्य अनाज ना खा कर
आंशिक व्रत रखा जा सकता हैं। यदि आप किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं तो भी एकादशी के
दिन चावल का प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए तथा इस दिन आप दान करके पुन्य
प्राप्त कर सकते हैं।
एकादशी के व्रत
में रात्रि जागरण का अधिक महत्व हैं। कहा गया हैं की, जो भक्तजन एकादशी की रात्रि
में जागरण एवं भजन कीर्तन करते हैं उन्हें श्रेष्ठ यज्ञों से जो पुण्य प्राप्त
होता उससे कई गुना अधिक पुण्य फलो की प्राप्ति होती हैं। अतः संभव हो तो रात्रि में जगकर भगवान का भजन
कीर्तन अवश्य करना चाहिए। एकादशी के दिन भगवान विष्णु का स्मरण कर विष्णु-सहस्रनाम
का पाठ करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा-दृष्टि प्राप्त होती हैं। इस दिन पौष
पुत्रदा एकादशी व्रत की कथा अवश्य पढनी, सुननी तथा सुनानी चाहिए।
व्रत के अगले
दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर सवेरा होने पर पुन: स्नान करने के पश्चात श्रीविष्णु
भगवान की पूजा तथा आरती करनी चाहिए। उसके पश्चात सही मुहूर्त में व्रत का पारण
करना चाहिए, साथ ही
ब्राह्मण-भोज करवाने के पश्चात योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण को अन्न का दान तथा यथा-संभव
सोना, तिल, भूमि, गौ, फल, छाता, जनेऊ या धोती दक्षिणा के रूप में देकर, उनका
आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा उपस्थित श्रद्धालुओ में प्रसाद वितरित करने के
पश्चात स्वयं मौन रह कर, भोजन ग्रहण करना चाहिए।
पौष पुत्रदा एकादशी व्रत का पारण
एकादशी
के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब
तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण ना किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिवस सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता
हैं।
ध्यान रहे,
१- एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व
करना अति आवश्यक हैं।
२- यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो
एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही करना चाहिए।
३- द्वादशी तिथि के भीतर पारण ना करना
पाप करने के समान माना गया हैं।
४- एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५- व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल का होता
हैं।
६- व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान
के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७- जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें
व्रत समाप्त करने से पूर्व हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए।
हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती हैं।
८- यदि जातक, कुछ कारणों से प्रातःकाल
पारण करने में सक्षम नहीं हैं, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण
करना चाहिए।
पौष
पुत्रदा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड
के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से परम पुण्यकारी पौष
पुत्रदा एकादशी के विषय पर पूछे जाने पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को
पौष पुत्रदा एकादशी की कथा सुनाई थी। उन्होंने बताया कि, “हे कुंती पुत्र! में तुम्हें पौष पुत्रदा
एकादशी की कथा सुनता हूँ। पौष पुत्रदा एकादशी की कथा को पढ़ने, सुनने अथवा सुनाने मात्र से ही समस्त प्राणी
को राजसूय यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं। अतः तुम यह कथा ध्यानपूर्वक सुनो-”
प्राचीन काल में भद्रावतीपुरी नामक एक नगर में
राजा सुकेतुमान राज किया करते थे। उनकी पत्नी का नाम रानी शैव्या था। कई वर्ष बीत
जाने पर भी उन्हें कोई संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी। अतः राजा तथा रानी दोनों इस
बात को लेकर चिन्ताग्रस्त रहते थे। रानी निसंतान होने के दुख से शोकाकुल रहने लगी।
साथ ही राजा भी पुत्रहीन होने के कारण बंधु-बांधव, राज्य, हाथी,
घोड़ा आदि से संतुष्ट नहीं थे। क्योंकी बिना पुत्र के पितरों तथा
देवताओं से ऋण-मुक्त नहीं हो सकते। राजा के पितर भी यह सोचकर चिन्ताग्रस्त थे कि
राजा का वंश आगे न चलने पर उन्हें तर्पण कौन करेगा तथा कौन उनका पिण्ड दान करेगा। राजा
इस चिन्ता से भी अधिक दु:खी थे कि उनके मृत्यु के पश्चात उन्हें कौन अग्नि देगा।
इस चिंता के कारण एक दिन वे इतना दुखी हो गए कि उनके मन में अपने शरीर को त्याग
देने की इच्छा उत्पन्न हो गई, किंतु वे सोचने लगे कि
आत्महत्या करना तो महापाप हैं, अतः उन्होने इस विचार को मन
से निकाल दिया। एक दिन इन्हीं विचारों में डूबे तथा चिन्ता से ग्रस्त राजा
सुकेतुमान अपने घोडे पर सवार होकर वन की ओर चल दिए। वन में चलते हुए वे अत्यन्त
घने वन में पहुँच गए। कुछ समय के पश्चात अपने विचारों में खोए हुए राजा को प्यास लगी।
अतः वे पानी की खोजमें वन में अधिक भीतर की ओर चले गए जहाँ उन्हें एक सरोवर दिखाई
दिया। राजा ने देखा कि सरोवर के पास ऋषियों के आश्रम भी बने हुए हैं तथा बहुत से
मुनि वहाँ वेदपाठ कर रहे हैं। अचानक राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। इसे शुभ-शगुन
समझकर राजा मन में प्रसन्न होते हुए अपने घोडे़ से नीचे उतरकर सरोवर से पानी पिये
तथा अपनी प्यास बुझाकर राजा ने सभी मुनियों को प्रणाम किया तथा उनके सामने बैठ गए।
ऋषियों ने राजा को आशीर्वाद दिया तथा बोले कि, “राजन हम
आपसे प्रसन्न हैं।” तब राजा ने ऋषियों से उनके एकत्रित होने का कारण पूछा। मुनि ने
कहा कि वह विश्वेदेव हैं तथा सरोवर के निकट स्नान के लिए आये हैं। आज से पाँचवें
दिन माघ मास का स्नान आरम्भ हो जाएगा।
ऋषियों की बात सुनकर राजा ने कहा- ‘हे मुनियो!
मेरा कोई पुत्र नहीं हैं, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपा कर मुझे एक पुत्र का वरदान दिजिए।’
ऋषि बोले- ‘हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी
हैं। जो मनुष्य इस दिन व्रत करता हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति
अवश्य होती हैं। अतः आप भी इसका उपवास करें। भगवान श्रीहरि की कृपा से आपको अवश्य
ही पुत्र प्राप्त होगा।’
राजा ने मुनि के वचनों के अनुसार पुत्रदा
एकादशी का व्रत आरंभ किया तथा अगले दिन द्वादशी को पारण किया एवं ऋषियों को प्रणाम
करके पुनः अपनी नगरी आ गया। व्रत के प्रभाव स्वरूप कुछ समय के पश्चात रानी गर्भवती
हो गई तथा नौ मास के पश्चात रानी ने एक तेजस्वी सुकुमार पुत्र को जन्म दिया, बड़ा होने पर
यह राजकुमार अत्यंत वीर, धनवान, यशस्वी
तथा प्रजापालक राजा बना। इस प्रकार जो व्यक्ति इस व्रत को रखते हैं, उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती हैं। संतान होने में यदि बाधाएं आती
हैं तो इस व्रत के रखने से वह दूर हो जाती हैं। जो मनुष्य इस व्रत की कथा को सुनता
हैं उसे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।
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