प्रथम दुर्गा | श्री शैलपुत्री | Shailputri Mata | माँ भगवती का प्रथम स्वरुप
जय माता दी। माँ शैलपुत्री
Shailputri Mata |
प्रथम माँ शैलपुत्री आप सब की मनोकामना पूरी करें
नवरात्रि में माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप श्री शैलपुत्री जी की पूजा
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृत
शेखराम।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम॥
नव दुर्गा के स्वरूप में शैलपुत्री प्रथम
हैं। शैलपुत्री होने का तात्पर्य हैं कि कभी नहीं हिलने ढुलने वाली पर्वत राजा की
पुत्री हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार संसार की समस्त नारियों में माता भवानी का
ही रूप हैं। महिलाओं में जो सौभाग्य व सुंदरता हैं वह देवी की ही हैं। अतः
शैलपुत्री के रूप में नारियों में स्थिरता धैर्य, साहस ,कठोरता, सहनशीलता आदि मुख्य गुण होते हैं। नवरात्रा
में प्रतिपदा तिथि की बढ़ोतरी से नवरात्रा बस 10 दिन के होते हैं। नवरात्रा की
वृद्धि आमजन के लिए सुख एवं समृद्धि सौभाग्य कारक हैं। माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप
शैलपुत्री की पूजा की जाती हैं। नवदुर्गा में प्रथम दुर्गा शैलपुत्री ही हैं।पर्वतराज
हिमालय के वहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा ।
शैलपुत्री माता के दाहिने हाथ में त्रिशूल एवं बाएं हाथ में कमल का फूल सुशोभित
हैं। वे अपने वाहन वृषभ पर विराजमान हैं।
नवरात्रा के शुरुआत के पहले स्वरूप में
माँ पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में विराजमान हैं ।शैलराज हिमालय की
पुत्री अथवा कन्या होने के कारण उन्हें शैलपुत्री का गया हैं।
शैलपुत्री से सीखे दृढ़ता - माँ दुर्गा
का प्रथम रूप हैं शैलपुत्री कहते हैं। जब सती अपने पति भगवान शंकर का अपमान नहीं
सहन कर सकी तो खुद को जला कर भस्म कर दिया ।सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की
पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाई। शैलपुत्री दृढ़ता का प्रतीक हैं।
शुभ कार्य के लिए श्रेष्ठ - आश्विन माह
की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि जिसे हम पहला नवरात्रा कहते हैं प्रत्येक शुभ
कार्य के लिए श्रेष्ठ हैं। एक दिन देवी के प्रथम रूप में माता शैलपुत्री का पूजन
किया जाता हैं।
नवरात्रा के पहले दिन माँ दुर्गा के पहले
स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती हैं इस दिन माँ को सफेद वस्तुओं का भोग लगाना चाहिए
।यदि माँ का भोग लगाने वाली चीजें गाय के घी की बनी हो तो व्यक्ति को रोग से
मुक्ति प्राप्त होती हैं।
श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री
हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के
प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती हैं। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के
कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का हैं, जिनकी आराधना से प्राणी सभी
मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता हैं।
माँ दुर्गा शक्ति की उपासना का पर्व
शारदीय नवरात्र प्रतिपदा सेनवमी तक सनातन काल से मनाया जाता रहा हैं। आदि-शक्ति के
हर रूप की नवरात्र के 9 दिनों में पूजा की जाती हैं। अत: इसे नवरात्र के नाम भी
जाना जाता हैं। सभीदेवता,
राक्षस, मनुष्य इनकी कृपा-दृष्टि के लिए लालायित
रहते हैं। यह
shailputri mata |
हिन्दू समाज का एक महत्वपूर्ण त्यौहार
हैं जिसका धार्मिक,
आध्यात्मिक, नैतिकव सांसारिक इन चारों ही
दृष्टिकोण से काफी महत्व हैं।दुर्गा पूजा का त्यौहार वर्ष में दो बार आता हैं,
एक चैत्र मास में और दूसरा आश्विन मास में चैत्र माह में देवी दुर्गा
की पूजा बड़े ही धूम धाम से की जाती हैं लेकिन आश्विन मास का विशेष महत्व हैं।
दुर्गा सप्तशती में भी आश्विन माह के शारदीयनवरात्रों की महिमा का विशेष बखान किया
गया हैं। दोनों मासों में दुर्गा पूजा का विधान एक जैसा ही हैं, दोनों ही प्रतिपदा से दशमी तिथि तक मनायी जाती हैं।
नवरात्र पूजन के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री
जी का पूजन होता हैं। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा
गया हैं, माँ शैलपुत्री दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए
अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं। नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में
साधक अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में
स्थित करते हैं, शैलपुत्री का पूजन करने से ‘मूलाधार चक्र’ जागृत होता हैं और यहीं से योग साधना
आरंभ होती हैं जिससे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं।
मंत्र : वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्। वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।
कलश स्थापना: विधि
नवरात्रा का प्रारम्भ आश्विन शुक्ल पक्ष
की प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना के साथ होता हैं। कलश को हिन्दु विधानों में
मंगलमूर्ति गणेश कास्वरूप माना जाता हैं अत: सबसे पहले कलश की स्थान की जाती हैं।
कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त यानी शुद्ध किया जाता हैं। भूमि की शुद्धि के
लिए गाय के गोबर और गंगा-जल से भूमि को लिपा जाता हैं।
शैलपुत्री पूजा विधि:
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शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही
माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती हैं। पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप
शैलपुत्री की पूजा होती हैं। दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा
और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं ।अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों,दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता,
ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश
में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता हैं। कलश में
सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता हैं और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित
किया जाता हैं।इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें
दशमी तिथि को काटा जाता हैं और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती हैं। इसे जयन्ती कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ
अर्पित किया जाता हैं “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा
शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”।
इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख,
सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं।कलश स्थापना के पश्चात
देवी का आह्वान किया जाता हैं कि ‘हे माँ दुर्गा हमने आपका
स्वरूप जैसा सुना हैं उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी हैं आप उसमें प्रवेश कर
हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें’। देवी दुर्गा की प्रतिमा
पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती हैं और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी
महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती हैं
और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी
रहती हैं तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती हैं। प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी
की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती हैं।
शैलपुत्री की ध्यान
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां
प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार
भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां
तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां
नितम्बनीम्॥
शैलपुत्री की स्तोत्र पाठ:
प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री
प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।
मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
शैलपुत्री की कवच :
ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
माँ दुर्गा की आरती
जय अंबे गौरी, मैया
जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि
ब्रह्मा शिवरी ॥ जय अंबे गौरी.....
माँग सिंदूर विराजत, टीको
मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन
नीको ॥ जय अंबे गौरी.....
कनक समान कलेवर, रक्तांबर
राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन
पर साजै ॥ जय अंबे गौरी.....
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर
धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके
दुखहारी ॥ जय अंबे गौरी.....
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे
मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत
सम ज्योती ॥ जय अंबे गौरी.....
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर
घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन
मदमाती ॥जय अंबे गौरी.....
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित
बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय
दूर करे ॥जय अंबे गौरी.....
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम
शिव पटरानी ॥जय अंबे गौरी.....
चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य
करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू
बाजत डमरू ॥जय अंबे गौरी.....
तुम ही जग की माता, तुम ही
हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख
संपति करता ॥जय अंबे गौरी.....
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा
धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत
नर नारी ॥जय अंबे गौरी.....
कंचन थाल विराजत, अगर
कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि
रतन ज्योती ॥जय अंबे गौरी.....
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ
नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति
पावे ॥ॐ जय
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