आदि कवि - महर्षि वाल्मीकि जी
महर्षि वाल्मीकि जी संक्षेप में
नाम- महर्षि वाल्मीकि जी
जन्म- त्रेता युग (भगवान् राम
के काल में)
पिता- प्रचेता
चर्षणी- माता
उपलब्धि- आदि कवी, वाल्मीकि जी रामयण
के रचयिता
Biography of Maharishi Valmiki |
महर्षि वाल्मीकि जी कौन थे? महर्षि वाल्मीकि का जीवन परिचय हिन्दी में | Biography of Maharishi Valmiki
वाल्मीकि जी प्राचीन
भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रुप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत मे रामायण
की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि जी रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य
हैं जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य
से, परिचित करवाता हैं।
महर्षि वाल्मीकि
जी को प्राचीन वैदिक काल के महान ऋषियों कि श्रेणी में प्रमुख स्थान प्राप्त हैं।
वह संस्कृत भाषा के आदि कवि तथा आदि काव्य ‘रामायण’ के
रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं।
भगवान वाल्मीकि
जी के पिता का नाम वरुण तथा मां का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता के दसवें
पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि कश्यप तथा अदिति के नौवीं
संतान थे पिता वरुण। वरुण का एक नाम प्रचेता भी हैं, इसलिए वाल्मीकि जी प्राचेतस
नाम से भी विख्यात हैं।
मत्स्य पुराण में भगवान वाल्मीकि जी को भार्गवसप्तम् नाम से स्मरण किया जाता हैं, तथा भागवत में उन्हें महायोगी कहा गया हैं। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशमग्रन्थ में वाल्मीकि जी को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया हैं।
मत्स्य पुराण में भगवान वाल्मीकि जी को भार्गवसप्तम् नाम से स्मरण किया जाता हैं, तथा भागवत में उन्हें महायोगी कहा गया हैं। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशमग्रन्थ में वाल्मीकि जी को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया हैं।
Maharishi Valmiki |
परम्परा में
महर्षि वाल्मीकि जी को कुलपति कहा गया हैं। कुलपति उस आश्रम प्रमुख को कहा जाता था
जिनके आश्रम में शिष्यों के आवास, भोजन, वस्त्र, शिक्षा आदि का प्रबंध होता था। वाल्मीकि जी का आश्रम गंगा नदी के निकट
बहने वाली तमसा नदी के किनारे पर स्थित था। वाल्मीकि जी का नाम वाल्मीकि जी कैसे
पड़ा इसकी एक रोचक कथा हैं। वाल्मीकि जी ने पूरी तरह़ भगवान से लौ लगाई तथा ईश्वर
में लीन रहने लगे। एक बार जब वह घोर तपस्या में लीन थे, उनके
समाधिस्थ शरीर पर दीमकों ने अपनी बाम्बियां बना लीं। दीमकों की बाम्बियों को
संस्कृत में वाल्मीक कहा जाता हैं। किन्तु वाल्मीकि जी को इसका आभास तक नहीं हुआ तथा
वह तपस्या में मगन रहे तथा उसी अवस्था में आत्मज्ञानी हो गए। अन्ततः, आकाशवाणी हुई, ‘तुमने ईश्वर के दर्शन कर लिए हैं।
तुम्हें तो इसका ज्ञान तक नहीं हैं कि दीमकों ने तुम्हारी देह पर अपनी बाम्बियां
बना ली हैं। तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। अब से तुम्हें संसार में वाल्मीकि जी के
नाम से जाना जाएगा। भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं
जिन्होंने न केवल उनके अन्तर्मन को हिला कर रख दिया किन्तु ये रामायण के आविर्भाव तथा
रामायण के अंतिम काण्ड उत्तरण्ड की आधारशिला बनीं। पहली घटना इस प्रकार हैं। एक
बार सुबह के स्नान के लिए वाल्मीकि जी तमसा नदी की ओर जा रहे थे, साथ में उनके प्रमुख शिष्य भरद्वाज भी थे। उन्होंने नदी के किनारे कामरत
क्रौन्च (सारस ) पक्षी का एक जोड़ा देखा। तभी वहां एक शिकारी आया तथा कामक्रीड़ारत
जोड़े में से नर पक्षी को बाण से मार गिराया। अकस्मात हुए इस हादसे से अकेली पड़
गई मादा विछोह न सह सकी तथा भूमि पर पड़े अपने नर के चारों तरफ घूम-घूम कर विलाप करने
तथा अंततः अपने प्राण त्याग दिए। इस हृदयविदारक दृश्य को देख कर अभिभूत वाल्मीकि
जी के मुख से यह श्लोक उच्चारित हुआ:-
मा निषाद प्रतिष्ठां
त्वमगमाः शाश्वतीः सभाः।
यत्क्रौन्चमिथुनादेकमवधी
काममोहितम्।।
(वा।
रामा। बालकाण्ड, संर्ग 2 श्लोक 15)
इसका
अर्थ हैं, निषाद (व्याध या शिकारी) को मानो श्राप देते हुए वाल्मीकि
जी ने कहा, ‘अरे! ओ शिकारी, तूने
काममोहित क्रौन्च जोड़े में से एक को मार डाला, जा तुझे कभी
चैन नहीं मिलेगा।’ इसी श्लोक के गर्भ से रामायण महाकाव्य की
रचना निकली। हुआ यह कि वाल्मीकि जी उद्वेग में उक्त श्लोक तो बोल गए, किन्तु वैदिक मंत्रों को सुनने तथा बोलने के अभ्यस्त वह सोचने लगे कि उनके
मुंह से यह क्या निकल गया? उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज से
कहा, ‘मेरे शोकाकुल हृदय से जो सहसा शब्दों में अभिव्यक्त
हुआ हैं, उसमें चार चरण हैं, हर चरण
में अक्षर बराबर संख्या में हैं तथा उनमें मानो मंत्र की लय गूंज रही हैं। अर्थात्
इसे गाया जा सकता हैं। किन्तु, भरद्वाज से अपनी बात कहने के
पश्चात भी वाल्मीकि जी का मनोमंथन चलता रहा तथा वह उसी में तल्लीन थे कि ब्रह्मा
जी उनके पास आए तथा उनसे कहा, यह अनुष्टप छंद में श्लोक हैं तथा
उनसे अनुरोध किया वह इसी छंद में राम-कथा लिखें। भगवान् वाल्मीकि जी जी त्रेता युग
के तिर्कालदर्शी ऋषि थे तथा अपने अन्तःचक्षुओं तथा बाह्य चक्षुओं से राम के वनगमन
से रावण का वध कर सीता को साथ ले अयोध्या वापस आने तक लीला देख चुके थे। फलस्वरूप
उन्होंने रामायण रची तथा उसके माध्यम से संस्कृति, मर्यादा व
जीवनपद्धति को गढ़ा। तथा, इस तरह भगवान वाल्मीकि जी पहले आदि
कवि भी बने। भगवान वाल्मीकि जी के जीवन में दूसरी महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब
लोकनिन्दा के डर से राम ने गर्भवती सीता को त्याग दिया तथा राम के आदेश पर लक्ष्मण
उन्हें तमसा नदी के किनारे छोड़ आए। नदी के किनारे असहाय बैठी सीता का रोना रुक ही
नहीं रहा था। उनकी इस हालत की सूचना मुनि-कुमारों के ज़रिए वाल्मीकि जी तक पहुंची।
वह स्वयं तट पर पहुंचे तथा विकल-बेहाल सीता को देखा। वह अपने दिव्य चक्षुओं से
पूरी घटना को जान चुके थे। उनका पितृत्व जागा तथा उन्होंने वात्सल्य से सीता के
सिर पर हाथ फेरा तथा आश्वासन दिया कि वह पुत्रीवत् उनके आश्रम में आकर रहें। सीता
चुपचाप उनके साथ चल कर आश्रम पहुंची तथा रहने लगीं। समय आने पर सीता ने दो
पु़त्रों लव तथा कुश को जन्म दिया। इन पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा सम्भाली वाल्मीकि
जी ने तथा उन्हें न केवल शस्त्र तथा शास्त्र विद्याओं में निपुण बनाया, किन्तु राम-रावण युद्ध तथा पश्चात में सीता के साथ अयोध्या वापसी, सीता के वनवास तथा सीता के पुत्रों के जन्म तक पूरी रामायण कंठस्थ करा दी।
यही नहीं सीता के आश्रम आगमन के पश्चात उन्होंने रामायण को आगे लिखना भी प्रारम्भ
कर दिया तथा इस खण्ड को नाम दिया उत्तरकाण्ड। जब राम ने राजसूय यज्ञ प्रारम्भ किया
तो यज्ञ का घोड़ा वाल्मीकि जी के आश्रम स्थल से भी गुज़रा। जिस घोड़े को तब तक कोई
राजा नहीं रोक सका था, उसे लव-कुश ने रोका तथा उसके साथ चल
रहे लक्ष्मण तथा हनुमान भी उनसे मुकाबला नहीं कर सके। वापस होकर लक्ष्मण तथा
हनुमान ने इन दो ऋषि वेशधारी कुमारों के साहस की कथा राम को सुनाई। जिज्ञासा वश
राम ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया तथा परिचय पूछा। वाल्मीकि जी के साथ दरबार
में पहुंचे लव-कुश ने, वाल्मीकि जी के आदेश को मानते हुए,
अपना परिचय वाल्मीकि जी के शिष्यों के रूप दिया तथा सीता के परित्याग
तक पूरी राम कथा उन्हें गाकर सुनाई। स्वयं वाल्मीकि जी ने सीता की पवित्रता की
घोषणा की तथा राम से कहा कि उन्होंने हज़ारों वर्ष तक गहन तपस्या की हैं तथा यदि
मिथिलेशकुमारी सीता में कोई भी दोष हो उन्हें उस तपस्या का फल न मिले। इसके पश्चात
राम ने सीता से लौट आने व राजमहल में रहने की प्रार्थना की। किन्तु सीता ने विकल
होकर धरती माता से उनकी गोद में पनाह देने की गुहार लगाई तथा उसमें समा गईं।
आदिकवि शब्द ‘आदि’
तथा ‘कवि’ के संयोग से
बना हैं। ‘आदि’ का अर्थ होता हैं ‘प्रथम’ तथा ‘कवि’ का अर्थ होता हैं ‘काव्य का रचयिता’। वाल्मीकि जी ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण
के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि जी
आदिकवि कहलाये।
अपने महाकाव्य “रामायण”
में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र
तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया हैं। इससे ज्ञात होता हैं कि वे
ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे। अपने वनवास काल के मध्य
“राम” महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल
सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए॥
तथा जब “राम“
ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब महर्षि वाल्मीक ने ही
सीता को आसरा दिया था।
उपरोक्त उद्धरणों
से सिद्ध हैं कि महर्षि वाल्मीकि जी को “राम” के जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का
पूर्णरूपेण ज्ञान था। उन्होने श्रीहरि विष्णु को दिये श्राप को आधार मान कर अपने
महाकाव्य “रामायण” की रचना की।
Maharishi Valmiki |
हिंदुओं के
प्रसिद्ध महाकाव्य वाल्मीकि जी रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता
हैं तथा जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन हैं,
के रचयिता महर्षि वाल्मीकि जी के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ
प्रचलित हैं जिसके अनुसार उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता हैं किन्तु वास्तविकता
इसके विरुद्ध हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं कि हिंदुओं के द्वारा हिंदू संस्कृति को
भुला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। वाल्मीकि जी रामायण
में स्वयं वाल्मीकि जी ने श्लोक संख्या ७/९३/१६, ७/९६/१८ तथा
७/१११/११ में लिखा हैं कि वाल्मीकि जी प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में
प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि
का भाई बताया गया हैं। बताया जाता हैं कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी हैं तथा वरुण
ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता हैं कि वाल्मीकि जी वरुण अर्थात् प्रचेता
के 10वें पुत्र थे।
महर्षि
कश्यप तथा अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी तथा
भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी हैं, इसलिए इन्हें प्राचेतस्
नाम से उल्लेखित किया जाता हैं। उपनिषद के विवरण के अनुसार यह भी अपने भाई भृगु की
भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए वरुण-पुत्र के शरीर को दीमकों ने
अपना घर बनाकर ढंक लिया था। साधना पूरी करके जब यह दीमकों के घर, जिसे वाल्मीकि जी कहते हैं, से बाहर निकले तो लोग इन्हें
वाल्मीकि जी कहने लगे।
महर्षि वाल्मीकि
जी ने रामायण मे स्वयं कहा हैं कि :
प्रेचेतसोंह
दशमाः पुत्रों रघवनंदन।
मनसा कर्मणा
वाचा,
भूतपूर्व न किल्विषम्।।
भगवान्
वाल्मीकि जी जी ने रामायण में राम को सम्बोधित करते हुए लिखा हैं कि हे राम मै
प्रचेता मुनि का दसवा पुत्र हू तथा राम मैंने अपने जीवन में कभी भी पापाचार कार्य
नहीं किया हैं।
जिससे कि
रत्नाकर की कहानी मिथ्या ही प्रतीत होती हैं क्योकि ऐसा ऋषि जिसके पिता स्वयं एक
मुनि हो तो भला वह डाकू कैसे बन सकता हैं तथा वह स्वयं राम के सामने सीता जी की
पवित्रता के बारे मे रामायण जैसी रचना मे अपना परिचय देता हैं तो वह गलत प्रतीत
नहीं होता।
वाल्मीकि जी महा कवी ने संस्कृत में महा काव्य रामायण की रचना
की थी, जिसकी प्रेरणा उन्हें ब्रह्मा जी ने दी थी। रामायण में भगवान विष्णु के अवतार
राम चन्द्र जी के चरित्र का विवरण दिया हैं। इसमें 23 हजार
श्लोक्स लिखे गए हैं। इनकी अंतिम साथ किताबों में वाल्मीकि जी महर्षि के जीवन का
विवरण हैं।
वाल्मीकि जी महर्षि ने राम के चरित्र का चित्रण किया, उन्होंने माता
सीता को अपने आश्रम में रख उन्हें रक्षा दी। पश्चात में, राम
एवम सीता के पुत्र लव कुश को ज्ञान दिया।
बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥
(मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना
करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर [कठोर] से विपरीत) बड़ी कोमल और सुंदर
है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात् दोष से रहित है)
..............(श्रीरामचरितमानस)
महर्षि वाल्मीकि जी को कुछ लोग निम्न जाति का
बतलाते हैं | पर वाल्मीकि रामायण ७|९३|१७, ७|९६|१९ तथा अध्यात्म रामायण ७|७|३१
में इन्होंने स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है …’प्रचेतसोऽहं
दशम:पुत्रो राघवनन्दन’| मनुस्मृति १|३५
में ‘प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगुं नारदमेव च’ में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य,
कवि आदि का भाई लिखा है | स्कन्दपुराण के
वैशाख माहात्म्य में इन्हें जन्मांतर का व्याध बतलाया है | इससे
सिद्ध है कि जन्मांतर में ये व्याध थे | व्याध-जन्म के पहले
भी स्तंभ नाम के श्रीवत्सीय गोत्रीय ब्राह्मण थे | व्याध-जन्म
में शंख ऋषि के सत्संग से, रामनाम के जप से ये दूसरे जन्म
में ‘अग्निशर्मा’ (मतान्तर से रत्नाकर)
हुए | वहाँ भी व्याधों के संग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश
व्याधकर्म में लगे | फिर सप्तऋषियों के सत्संग से मरा-मरा
जपकर ---बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नाम से ख्यात हुए और वाल्मीकीय रामायण की रचना की |
(कल्याण सं० स्कंदपुराणांक पृ० ३८१;७०९;१०२४) ,बँगला के कृतिवास रामायण, मानस, अध्यात्म रामायण २|६|६४ से ९, आनन्दरामायण राज्यकांड १४|२१-४९, भविष्यपुराण प्रतिसर्ग०४|१० में भी यह कथा थोड़े हेरफेर से स्पष्ट है | अतएव
इन्हें नीचजाति का मानना सर्वार्थ भ्रममूलक है |
....गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण,पुस्तककोड ७५,पृष्ठ
४)
वाल्मीकि जी जयंती तिथि कार्यक्रम
वाल्मीकि जी जी का जन्म आश्विन मास की पूर्णिमा को हुआ था, इसी दिन को
हिन्दू धर्म पंचांग में वाल्मीकि जी जयंती कहा जाता हैं। इस पवन दिवस को महर्षि वाल्मीकि
जी की याद में मनाया जाता हैं। प्रति वर्ष वाल्मीकि जी जयंती के दिन कई स्थान
शोभायात्रा निकाली जाती हैं। वाल्मीकि जी ऋषि की स्थापित प्रतिमा स्थल पर मिष्टान,
भोजन, फल वितरण एवं भंडारे का विशेष आयोजन
किया जाता हैं। महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन भक्तिभाव की राह पर चलने की प्रेरणा
प्रदान करता हैं। इसी महान संदेश को वाल्मीकि जी जयंती पर लोगों तक प्रसारित किया
जाता हैं। भारत देश में वाल्मीकि जी जयंती मनाई जाती हैं। मुख्यतः पर
उत्तर भारत में इसका महत्व हैं।
वाल्मीकि जी जी आदि कवी थे। इन्हें श्लोक का जन्मदाता माना
जाता हैं, इन्होने ही संस्कृत के प्रथम श्लोक को लिखा था। इस जयंती को प्रकट दिवस के
रूप में भी जाना जाता हैं। महर्षि वाल्मीकि जी का जीवनचरित्र दृढ़ इच्छाशक्ति तथा
अटल निश्चय का सुंदर मिश्रण हैं। महाकाव्य रामायण की रचना करने वाले परमज्ञानी
तपस्वी वाल्मीकि जी का जीवन अत्यंत प्रेरणादायक हैं। वाल्मीकि जी जयंती दिन पर वाल्मीकि
जी पंथी गण भिन्न भिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित कर के वाल्मीकि जी कथा का
प्रसार करते हैं।
वाल्मीकि जी जयंती हिन्दू पंचांग अनुसार आश्विनी माह की पुर्णिमा
के दिन बड़े धूम धाम से मनाई जाती हैं। महर्षि वाल्मीकि जी आदिकवि के नाम से भी
प्रसिद्ध हैं। उन्हे यह उपाधि सर्वप्रथम श्लोक निर्माण करने पर दी गयी थी। वैसे तो
वाल्मीकि जी जयंती दिवस पूरे भारत देश में उत्साह से मनाई जाता हैं परंतु उत्तर
भारत में इस दिवस पर बहुत धूमधाम होती हैं। उत्तरभारतीय वाल्मीकि जी जयंती को ‘प्रकट दिवस’
रूप में मनाते हैं।
१. कई प्रकार के धार्मिक आयोजन किये जाते हैं।
२. शोभा यात्रा सजती हैं।
३. मिष्ठान,
फल, पकवान वितरित किये जाते हैं।
४. कई जगहों पर भंडारे किये जाते हैं।
५. वाल्मीकि जी के जीवन का ज्ञान सभी को दिया जाता हैं।
वाल्मीकि जी रामायण से जुड़े रोचक तथ्य
१. महर्षि वाल्मीकि जी खगोल विद्या, तथा
ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित थे।
२. श्री राम के त्यागने के पश्चात महर्षि वाल्मीकि जी नें ही माँ
सीता को अपने आश्रम में स्थान दे कर उनकी रक्षा की थी।
३. महर्षि वाल्मीकि जी स्वयम रामायण काल के थे तथा वे भगवान् राम
से मिले थे, अतः बहुत लोग वाल्मीकि जी रामायण को ही सटीक मानते हैं।
४. रामायण महाकाव्य में कुल मिला कर चौबीस हज़ार श्लोक का निर्माण
किया गया हैं।
५. ऋषि वाल्मीकि जी नें श्री राम तथा देवी सीता के दो तेजस्वी
पुत्रों लव तथा कुश को ज्ञान प्रदान किया था।
६. सारस पक्षी
के वध पर जो श्लोक महर्षि वाल्मीकि जी के मुख से निकला था वह परमपिता ब्रह्मा जी
की प्रेरणा से निकला था। जो बात स्वयं ब्रह्मा जी नें उन्हे बताई थी। उसी के
पश्चात उन्होने रामायण की रचना की थी।
७. विष्णुधर्मोत्तर
पुराण के अनुसार त्रेता युग में जन्मे महर्षि वाल्मीकि जी ने ही कलयुग में
गोस्वामी तुलसीदास जी रूप में जन्म लिया
तथा “रामचरितमानस” की
रचना की।
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