01 November 2018

रमा एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Rama Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi #EkadashiVrat

रमा एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Rama Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi #EkadashiVrat

Vinods Pandey
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वैदिक विधान कहता हैं की, दशमी को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना चाहिए। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती हैं। प्रत्येक एकादशी का भिन्न भिन्न महत्व होता हैं तथा प्रत्येक एकादशीयों की एक पौराणिक कथा भी होती हैं। एकादशियों को वास्तव में मोक्षदायिनी माना जाता हैं। भगवान श्रीविष्णु जी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई हैं चाहे वह कृष्ण पक्ष की हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले प्रत्येक भक्तों पर प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती हैं, अतः प्रत्येक एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करते हैं तथा व्रत रखते हैं, साथ ही रात्री जागरण भी करते हैं। किन्तु इन प्रत्येक एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी हैं जिसके प्रभाव से मनुष्य के प्रत्येक पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। सनातन हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी परम कल्याणकारी रमा एकादशी के नाम से विख्यात हैं। रमा एकादशी को रम्भा एकादशी या कार्तिक कृष्ण एकादशी भी कहा जाता हैं। यह व्रत देवी लक्ष्मी के नाम से जाना जाता हैं। जो की दिवाली के त्योहार से चार दिन पूर्व आता हैं। रमा एकादशी का व्रत जातक को अर्थ व काम से ऊपर उठाकर मोक्ष तथा धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता हैं। अतः यह व्रत अति उत्तम माना गया हैं। रमा एकादशी के दिन भगवान विष्णु जी का विशेष विधि-विधान से पूजन किया जाता हैं। इस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रत करने का विधान हैं। इस दिन भगवान श्री विष्णु जी का पूजन एवं भागवत गीता का पाठ करना उत्तम माना गया हैं।




 “रमा एकादशी” क्यों कहते हैं

यद्यपि भगवान विष्णु जी कार्तिक मास के समय योगनिद्रा में शयन कर रहे होते हैं तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान जी चार मास पश्चात जागृत होते हैं। सपूर्ण कार्तिक का मास भगवान विष्णु जी को समर्पित होता हैं। किन्तु कृष्ण पक्ष में जितने भी पर्व आते हैं उनका संबंध किसी न किसी प्रकार से माता लक्ष्मी जी से भी होता हैं। दिवाली के त्योहार पर विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन किया जाता हैं। अतः माता लक्ष्मी की उपासना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही प्रारम्भ हो जाती हैं। माता लक्ष्मी का अन्य एक नाम रमा हैं अतः इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता हैं।



रमा एकादशी का व्रत कब किया जाता हैं?

रमा एकादशी दिवाली के पर्व से चार दिन पूर्व आती हैं। सनातन हिन्दू पंचांग के अनुसार रमा एकादशी का व्रत सम्पूर्ण उत्तरी भारत में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के किया जाता हैं, किन्तु गुजरात, महाराष्ट्र तथा दक्षिणी भारत में रमा एकादशी आश्विन मास के कृष्ण एकादशी को मनाई जाती हैं। अङ्ग्रेज़ी कलेंडर के अनुसार यह व्रत अक्टूबर या नवम्बर के मास में आता हैं।



रमा एकादशी व्रत का महत्व

VKJ Pandey
rama ekadashi vrat
पौराणिक शास्त्रों में एकादशी के दिवस के महत्व को पूर्ण रुप से बताया गया हैं। पद्म पुराण के अनुसार रमा एकादशी व्रत कामधेनु तथा चिंतामणि के समान फल प्रदान करता हैं। कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने तथा दानादि करने का विधान हैं। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहाँ कई हजार यज्ञ करने का फल प्राप्त होता हैं, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक प्राप्त होता हैं। इस एकादशी के महत्व का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराणमें भी प्राप्त होता हैं, तथा इस एकादशी को पाप से मुक्ति के लिए सर्वाधिक आवश्यक माना गया हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि हजारों वर्षो की तपस्या से जो फल नहीं प्राप्त होता, वह फल इस व्रत से प्राप्त हो जाता हैं। इससे अनजाने में किये जातक के पाप क्षमा होते हैं, तथा उसे मुक्ति प्राप्त होती हैं। श्रीकृष्ण जी आगे बताते हैं कि इस दिवस दान का विशेष महत्व होता हैं। जातक यदि अपनी इच्छा से अनाज, जूते-चप्पल, छाता, कपड़े, पशु या सोना का दान करता हैं, तो इस व्रत का फल उसे पूर्णतः प्राप्त होता हैं। जातक को सांसारिक जीवन में सुख शांति, ऐश्वर्य, धन-सम्पदा तथा अच्छा परिवार प्राप्त होता हैं। अतः रमा एकादशी व्रत के दिवस यथासंभव दान व दक्षिणा देनी चाहिए। श्रीकृष्ण जी यह भी बताते हैं कि इस व्रत से मृत्यु के पश्चात नरक में जाकर यमराज के दर्शन कदापि नहीं होते हैं, किन्तु सीधे स्वर्ग का मार्ग खुलता हैं। जो मनुष्य रमा एकादशी का व्रत रखता हैं, उसे अच्छा स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता हैं। इस दिन किए गए पुण्य कर्म में श्रद्धा, भक्ति तथा आस्था से ही मनुष्य को स्थिर पुण्य फल की प्राप्ति हो सकेगी। संसाररूपी भंवर में फंसे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत तथा भगवान विष्णु जी का पूजन अत्यंत आवश्यक हैं। स्वयं भगवान जी ने यही कहा हैं कि रमा एकादशी का व्रत के प्रभाव से जातक को कुयोनि प्राप्त नहीं होती। विष्णु जी के भक्तो के लिए, इस एकादशी का विशेष महत्व हैं। पूर्ण श्रद्धा-भाव से यह व्रत करने से समस्त पापों से मुक्ति प्राप्त होती हैं। विष्णु भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से प्रसन्न होते हैं। अतः एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करने से इस संसार के समस्त पापों से मुक्ति प्राप्त होती हैं। रमा एकादशी का व्रत करने से ब्रह्माहत्या आदि के पाप नष्ट होते हैं। इस दिवस उपवास रखने से पुण्य फलों की प्राप्ति होती हैं ,साथ ही व्रत के प्रभाव से जातक का शरीर भी स्वस्थ रहता हैं। जो फल सुर्य तथा चंद्र ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र तथा काशी में स्नान- दान से प्राप्त होता हैं। उसी के समान इस एकादशी व्रत के करने से प्राप्त होता हैं। जो व्यक्ति पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या-काल में एकाहार अर्थात एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने का विधान हैं। एकादशी का व्रत जीवों के परम लक्ष्य, भगवद-भक्ति को प्राप्त करने में सहायक माना गया हैं। एकादशी का दिवस प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से भक्ति करने के लिए अति शुभकारी तथा फलदायक माना गया हैं। इस दिवस जातक अपनी इच्छाओं से मुक्त हो कर यदि शुद्ध चित्त से प्रभु की पूर्ण-भक्ति से सेवा करता हैं तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपा के पात्र बनता हैं।



रमा एकादशी व्रत पूजन सामग्री

भगवान के लिए पीला वस्त्र

श्री विष्णु जी की मूर्ति

शालिग्राम भगवान की मूर्ति

पुष्प तथा पुष्पमाला

नारियल तथा सुपारी

धूप, दीप तथा घी

पंचामृत (दूध (कच्चा दूध), दही, घी, शहद तथा शक्कर का मिश्रण)

अक्षत

तुलसी पत्र

चंदन

प्रसाद के लिए मिठाई तथा ऋतुफल

तिल तथा गुड़ का सागार



रमा एकादशी व्रत की पूजा विधि

एकादशी का व्रत रखने वाले भक्तो को अपना मन शांत एवं स्थिर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की द्वेष-भावना या क्रोध को मन में नहीं लाना चाहिए। परनिंदा से बचना चाहिए तथा इस दिन कम से कम बोलना चाहिए, जिस से मुख से कोई गलत बात ना निकाल पाये।

प्रत्येक एकादशी व्रत का विधान स्वयं श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा हैं। व्रत की विधि बताते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि एकादशी व्रतों के नियमों का पालन दशमी तिथि से ही प्रारम्भ किया जाता हैं, अतः दशमी तिथि के दिन में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए तथा साँयकाल में सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करना चाहिए एवं रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन तथा भगवान का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए। दशमी के दिवस चावल, उरद, चना, मूंग, जौ तथा मसूर का सेवन नहीं करना चाहिए।

VKJ Pandey
rama ekadashi vrat
अगले दिन अर्थात एकादशी व्रत के दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर, स्नानादि से पवित्र होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूजा-घर को शुद्ध कर लेना चाहिए। इसके पश्चात आसन पर बैठकर व्रत संकल्प लेना चाहिए कि मैं आज समस्त भोगों को त्याग कर, निराहार एकादशी का व्रत करुंगा, हे प्रभु मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा करें। तथा मेरे समस्त पाप क्षमाँ करे।संकल्प लेने के पश्चात कलश स्थापना की जाती हैं तथा उसके ऊपर भगवान श्रीविष्णु जी की मूर्ति या प्रतिमा रखी जाती हैं। उसके पश्चात शालिग्राम भगवान को पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए एवं पुष्प तथा ऋतु फल का भोग लगायें तथा शालिग्राम पर तुलसी-पत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। उसके पश्चात धूप, दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य, मिठाई, नारियल तथा फल आदि से भगवान विष्णु का पूजन करने का विधान हैं। अतः भगवान जी की विधिवत पूजन-आरती करनी चाहिए। पंचामृत समस्त श्रद्धालुओ में वितरण करना चाहिए। इस दिन सफ़ेद चन्दन या गोपी चन्दन मस्तक पर लगाकर पूजन करना चाहिए। रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प तथा ऋतु फलों से पूजा की जाती हैं। व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में व्यतीत करना  चाहिए। शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक हैं अतः व्रत में तुलसी पूजन करना तथा तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम हैं। ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी प्रत्येक मनोकामनाएं सहज ही पूर्ण हो जाती हैं। इस दिन पूर्ण श्रद्धा तथा भक्ति से किये गया उपवास पुण्य चिरस्थायी होता हैं तथा भगवान जातक की प्रत्येक मनोकामनाएं शीघ्र अवश्य पूर्ण करते हैं। व्रत के दिन अन्न वर्जित हैं। अतः निराहार रहें तथा सध्याकाल में पूजा के पश्चात चाहें तो फल ग्रहण कर सकते हैं। यदि आप किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं तो भी एकादशी के दिन चावल का प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए तथा इस दिन आप दान करके पुन्य प्राप्त कर सकते हैं।

एकादशी के व्रत में रात्रि जागरण का अधिक महत्व हैं। अतः संभव हो तो रात में जगकर भगवान का भजन कीर्तन करना चाहिए। एकादशी के दिन भगवान विष्णु का स्मरण कर विष्णु-सहस्रनाम का पाठ करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा-दृष्टि प्राप्त होती हैं। इस दिन रमा एकादशी व्रत की कथा अवश्य पढनी, सुननी तथा सुनानी चाहिए। व्रत के अगले दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर सवेरा होने पर पुन: स्नान करने के पश्चात श्रीविष्णु भगवान की पूजा तथा आरती करनी चाहिए। उसके पश्चात सही मुहूर्त में व्रत का पारण करना चाहिए, साथ ही ब्राह्मण-भोज करवाने के पश्चात उन्हे अन्न का दान तथा यथा-संभव सोना, तिल, भूमि, गौ, फल, छाता या धोती दक्षिणा के रूप में देकर, उनका आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा उपस्थित श्रद्धालुओ में प्रसाद वितरित करने के पश्चात स्वयं मौन रह कर, भोजन ग्रहण करना चाहिए।



रमा एकादशी व्रत का पारण

एकादशी के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण ना किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिवस सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता हैं।



ध्यान रहे,

१.  एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पूर्व करना अति आवश्यक हैं।

२.  यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त हो रही हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही करना चाहिए।

३.  द्वादशी तिथि के भीतर पारण ना करना पाप करने के समान माना गया हैं।

४.  एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।

५.  व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल का होता हैं।

६. व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।

७.  जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत समाप्त करने से पूर्व हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती हैं।

८.  यदि जातक, कुछ कारणों से प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं हैं, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।



रमा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा

धर्मराज युधिष्ठिर, भगवान श्री कृष्ण जी से कहते हैं की, “हे गोपाल! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम हैं? इसके करने से क्या फल प्राप्त होता हैं। तथा कृपया आप इसकी कथा बताइये”। यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण जी कहते हैं की, “कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा हैं। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली एकादशी मानी गई हैं। इसकी कथा मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो”।

प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी तथा यम, कुबेर, वरुण तथा विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा ही धर्मात्मा, विष्णुभक्त तथा न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी यह रमा एकादशी भी आने वाली थी।

Vinod Pandey
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जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं तथा मेरे पिता की आज्ञा भी अति कठोर हैं। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को कोई भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई तथा उसने अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच जाये, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, तो मनुष्य का तो कहना ही क्या। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो कृपा कर आप किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना होगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देख लेंगे।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत कर लिया तथा वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए तथा रात्रि को जागरण का समय आया जो भक्तो को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए यह अत्यंत दु:खदायी सिद्ध हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण चले गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से विधिपूर्वक उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया तथा शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के पश्चात अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न तथा वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व तथा अप्सराओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर पहुंचा तथा उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन हैं, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया तथा प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद तथा आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा हैं। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर हैं। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं हैं तथा कैसे स्थिर हो सकता हैं आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया हैं। अत: यह सब कुछ अस्थिर हैं। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता हैं।

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा हैं। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं हैं। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।

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चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा हैं। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य हैं। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव तथा एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके पश्चात बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। तथा उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्यरुप धारण करके, दिव्य आभू‍षणों तथा वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

हे राजन! इस रमा एकादशी का महत्व पुराणों में भी बताया गया हैं। इसके पालन से जीवन की दुर्बलता नष्ट होती हैं तथा जीवन पापमुक्त होता हैं। जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस कथा को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से मुक्त हो कर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं।

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