गुरु तेग़बहादुर शहीद दिवस पर विशेष:-
Guru Teg Bahadur Ji History |
गुरु तेग़बहादुर शहीद दिवस | Guru Teg Bahadur Ji History in Hindi
आज, 24 नवम्बर 2018 को गुरू तेग़बहादुर जी साहेब का बलिदान दिवस हैं।
गुरू तेग़बहादुर जी
जिनका का जन्म 1 अप्रैल, 1621 तथा बलिदान 24 नवम्बर, 1675
को हुआ था।
ये सिख धर्म के
नोवें गुरु थे जो सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग अनुसरण करते
रहे। तथा इनके द्वारा रचित 115 पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं।
गुरुतेग बहादुर ने
कश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुस्लिम बनाने का विरोध किया।
इस्लाम धर्म स्वीकार
न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हे इस्लाम धर्म स्वीकार
करने को कहा पर गुरु
तेग़बहादुर साहब ने कहा हम सीस कटा सकते हैं पर केश नहीं।
तब औरंगजेब ने गुरु
तेगबह्दुर जी का सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा
गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का याद दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की बलि चढा
दी गई थी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार भी किया गया। विश्व के इतिहास में धर्म एवं
मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए
प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग़ बहादुर साहब का स्थान बहुत ही अमूल्य हैं।
"धरम हेत
साका जिनि कीआ सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
एक सिक्ख स्रोत के
अनुसार
गुरुद्वारा शीशगंज
साहिब के अन्दर का दृष्य इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के
लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत के लिये बलिदान था। धर्म उनके लिए
सांस्कृतिक मूल्यों तथा जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों
के लिए उनका बलि चढ़ जाना सांस्कृतिक विरासत तथा इच्छित जीवन के विधान पक्ष में एक
परम साहसिक अभियान रहा।
आततायी शासकों की
धर्म विरोधी तथा वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु
तेग़ बहादुर जी का बलिदान एक ऐतिहासिक घटना हैं। यह गुरुजी के निर्भय आचरण,
धार्मिक अडिगता तथा नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण हैं। गुरुजी
मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक
क्रांतिकारी युग पुरुष रहे हैं।
24 नवंबर, 1675 ई को दिल्ली के चांदनी चौक में वहां के काज़ी ने फ़तवा पढ़ा तथा
जल्लाद जलालदीन ने तलवार से वार कर के गुरू जी साहिब का शीश धड़ से अलग कर दिया।
किन्तु गुरु तेग़ बहादुर साहेब ने अपने मुंह से उफ्फ तक नहीं निकला। उनके इस
अद्वितीय बलिदान के बारे में गुरु गोविन्द सिंह जी ने ‘बिचित्र
नाटक में लिखा हैं की ....
तिलक जंञू राखा
प्रभ ताका॥
कीनो बडो कलू महि
साका॥
साधन हेति इती
जिनि करी॥
सीसु दीया परु सी
न उचरी॥
धरम हेत साका
जिनि कीआ॥
सीसु दीआ परु
सिररु न दीआ॥
(दशम ग्रंथ के
अनुसार)
गुरुजी ने धर्म के
सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए अनेक क्षेत्रों का
भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल)
पहुँचे। यहाँ से गुरुजी धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब
से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए
कड़ामानकपुर पहुँचे तथा यहाँ साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
यहाँ से गुरु
तेगबहादुर साहेब जी प्रयागराज, काशी, पटना,
आसाम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने
लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक,
उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिक रूप से धर्म का
सच्चा ज्ञान बाँटा। सामाजिक रूप से चली आ रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों
की कटु आलोचना कर नए-नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए। उन्होंने जन सेवा एवं
परोपकार के लिए अनेक कुएँ खुदवाये, धर्मशालाएँ बनवाई तथा ऐसे
अनंत लोक परोपकारी कार्य किए।
तथा इन्हीं यात्राओं
के बीच 1666इस्वी में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में एक पुत्र का जन्म हुआ, जो दसवें गुरु- गुरु गोबिन्दसिंहजी के नाम से जाने जातें हैं।
गुरु तेगबदुर जी ने
सदा सहनशीलता, कोमलता तथा सौम्यता की मिसाल के साथ साथ यही
संदेश दिया हैं कि किसी भी आदमी को न तो डराना चाहिए तथा न ही डरना चाहिए। इसी उदाहरण
को सिद्ध करने के लिए गुरू तेग बहादुर जी ने खुशि-ख़ुशी अपना बलिदान दे दिया जिसके
कारण उन्हें हिन्द की चादर या भारत की ढाल भी कहा जाता हैं उन्होंने दूसरों को
बचाने के लिए अपना बलिदान दिया।
गुरू तेग बहादुर जी
को अगर अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरूष कहा जाए तो गलत नही
होगा उनका कहना था की गुरू चमत्कार या करमातें नहीं दिखाता वो उस अकालपुरख की रजा
में रहता हैं तथा अपने सेवकों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता हैं।
गुरू तेग बहादुर जी
ने अपने धर्म के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था ऐसा कोई संत परमेश्वर ही कर
सकता हैं जिसने अपने में स्वमं को पा लिया हो अर्थात् अपने हृदय में परमात्मा को
पा लिया उसके भेद को तो कोई बिरला ही समझ पाता हैं गुरू घर से जुड़ने के लिए
गुरबाणी में बात कही गई हैं।
समूचे विश्व को ऐसे
बलिदानियों से प्रेरणा प्राप्त होती हैं, जिन्होंने अपने
प्राण तो दे दीये किन्तु सत्य का मार्ग कभी नही त्यागा। नवम पातशाह श्री गुरु तेग
बहादुर साहेब जी भी ऐसे ही बलिदानी थे। गुरु जी ने स्वयं के लिए नहीं, अपितु दूसरों के अधिकार एवं भरोसे की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति
दी।
अपनी आस्था के लिए
बलिदान देने वालों के उदाहरणों से तो अतीत भरा पड़ा हैं, किन्तु
किसी दूसरे की आस्था तथा विश्वास की रक्षा के लिए बलिदान देने का एक मात्र उदाहरण
नवम पातशाह श्री तेगबहादुर जी साहेब जी हैं।
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