19 September 2018

परिवर्तिनी एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Parivartini Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi


परिवर्तिनी एकादशी व्रत विधि | पौराणिक व्रत कथा | Parivartini Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi #EkadashiVrat



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वैदिक विधान कहता है की, दशमी को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना चाहिए। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं, किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है। भगवानजी को एकादशी तिथि अति प्रिय मानी गई है चाहे वह कृष्ण पक्ष की हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण एकादशी के दिन व्रत करने वाले भक्तों पर प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती है, अतः प्रत्येक एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करते हैं तथा व्रत रखते हैं, एवं रात्री जागरण करते है। किन्तु इन सभी एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी है जिसमे भगवान विष्णु जी चातुर्मास की निद्रा में सोते हुए अपनी करवट बदलते हैं। अतः इस एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह एकादशी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन आती है तथा यह एकादशी, पार्श्व एकादशी, वामन एकादशी, जयझूलनी, डोल ग्यारस, पद्मा एकादशी तथा जयंती एकादशी के नाम से भी जानी जाती है। परिवर्तिनी एकादशी के दिन भगवान् विष्णु के वामन स्वरूप की पूजा-अर्चना की जाती है। पापियों के पाप का नाश करने के लिए परिवर्तिनी एकादशी के व्रत से बड़ा कोई उपाय नहीं है। संसार से मोक्ष प्रदान करने वाली यह एक सर्वोत्तम एकादशी मानी गई है। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन भगवान के वामन स्वरूप की पूजा करता है, उस मनुष्य को वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। जैसे की आपको ज्ञात होगा की देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु चार मास के लिये योगनिद्रा में शयन करते हैं। अतः इन चार महीनों को चतुर्मास कहा जाता है तथा धार्मिक कार्यों, ध्यान, भक्ति आदि के लिये यह समय अति उत्तम माना जाता है। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद तथा आश्विन यह चार मास धार्मिक रूप से चतुर्मास या चौमासा के नाम से जाने जाते हैं तथा ऋतुओं में यह काल वर्षा ऋतु का होता है। भगवान विष्णु चार मास की अवधि में देवशयनी एकादशी से शयन करते रहते हैं तथा परिवर्तिनी एकादशी पर अपनी करवट बदलते हैं तथा देव उठनी एकादशी के दिन ही जागृत होते हैं ।


परिवर्तिनी एकादशी व्रत का महत्व
       प्रत्येक मास की एकादशियों का विशेष महत्व माना गया है। पौराणिक ग्रंथोके अनुसार प्रत्येक एकादशी तिथि व्रत, स्नान, दान आदि के लिये अत्यंत ही शुभ एवं फलदायी मानी गई है। ऐसी मान्यता है कि एकादशी व्रत से भगवान विष्णु अत्यंत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। व्रती पर भगवानजी की अपार कृपा-दृष्टि बनी रहती है। परिवर्तिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के वामन स्वरूप की आराधना की जाती है। संसार से मोक्ष प्राप्त करने एवं समस्त पापों को नष्ट करने वाली यह एक सर्वोत्तम एकादशी मानी गई है। मान्यता यह भी है कि इस एकादशी के व्रत से व्रती को वाजपेय यज्ञ जितना पुण्य फल प्राप्त होता है। जो साधक अपने पूर्वजन्म से लेकर वर्तमान में जाने-अंजाने किये गये पापों का प्रायश्चित करना चाहते हैं तथा मोक्ष की कामना रखते हैं उनके लिये यह एकादशी मोक्ष प्रदान करने वाली, समस्त पापों का नाश करने वाली मानी जाती है। ऐसी भी मान्यता है कि परिवर्तिनी एकादशी के दिन व्रत तथा पूजन, ब्रह्मा तथा विष्णु सहित तीनो लोकों की पूजा करने के समान होता है।

परिवर्तिनी एकादशी व्रत की पूजा विधि

       धार्मिक ग्रंथो के अनुसार दशमी तिथि के सायकाल में सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए तथा रात्रि में भगवान श्री हरी का ध्यान करते एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शयन करना चाहिए।

       एकादशी के दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान आदि नित्यक्रिया करने के पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर भगवान् श्रीविष्णु की प्रतिमा के समक्ष घी का दीपक प्रज्वल्लीत करना चाहिए। भगवान् विष्णु की पूजा में तुलसी-पत्र, ऋतु फल एवं तिल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। परिवर्तिनी एकादशी के दिन भगवान् विष्णु की पूजा कमल के फूलों द्वारा करनी चाहिए। इस दिन व्रती को अपना मन शांत एवं स्थिर रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की द्वेष भावना या क्रोध को मन में नहीं लाना चाहिए तथा परनिंदा से बचना चाहिए। इस एकादशी को ताँबा, चाँदी, चावल तथा दही का दान करना उचित माना जाता है। व्रत के दिन अन्न वर्जित है अतः सम्पूर्ण दिन निराहार रहना चाहिए तथा सायकाल पूजा के पश्चात आवश्यकता के अनुसार फलाहार ग्रहण कर सकते है। ध्यान रहे की, यदि आप किसी कारणवश व्रत नहीं रख पाते हैं तो भी एकादशी के दिन चावल का प्रयोग भोजन में भूलकर भी नहीं करना चाहिए।

       एकादशी व्रत के दिन रात्रि जागरण का अत्यंत महत्व है। यथा-संभव रात में जगकर भगवान का भजन कीर्तन करना चाहिए। एकादशी के दिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। एकादशी व्रत के अगले दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर विधि पूर्वक, शुभ मुहूर्त में व्रत का पारण करना चाहिए तथा ब्राह्मण भोजन करवाने के पश्चात स्वयं भोजन करना चाहिए।


परिवर्तिनी एकादशी व्रत का पारण
       एकादशी के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण न किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता है।
 
ध्यान रहे,
१.             एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है।   
२.             यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही होता है।
३.             द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।
४.             एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५.             व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है।
६.             व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७.             जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत समाप्त करने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती है।
८.             यदि, कुछ कारणों की वजह से जातक प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।

परिवर्तिनी एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
       परिवर्तनी एकादशी के अवसर पर भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा कही जाती है। जो की इस प्रकार है-
       एक बार पाण्डुपुत्र अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान से कहा की "हे मधुसूदन! भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है, कृपा कर इसका महत्व तथा इस व्रत की कथा बताइये।"
       इस पर भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा की "हे पार्थ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परिवर्तिनी या जयन्ती एकादशी भी कहते हैं। इस एकादशी की कथा के सुनने मात्र से ही सभी पापों का शमन हो जाता है तथा मनुष्य स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है। इस एकादशी की कथा से पापियों का भी उद्धार हो जाता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है की, यदि कोई धर्मपरायण मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरे वामन स्वरूप का पूजन करता है तो मैं उसको संसार की समस्त पूजा का फल प्रदान करता हूँ तथा उसे मेरे लोक की प्राप्ति होती है साथ ही वह तीनों देवता अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा का फल प्राप्त करता है। हे पार्थ! जो मनुष्य इस एकादशी का उपवास करते हैं, उन्हें इस संसार में कुछ भी करना शेष नहीं रहता। इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं, अतः इसे परिवर्तिनी एकादशी कहते हैं।"
       भगवान श्रीकृष्ण जी आगे बताते है की - "हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! अब तुम समस्त पापों का नाश करने वाली इस सर्वोत्तम एकादशी की कथा का ध्यानपूर्वक श्रवण करो। त्रेतायुग में बलि नाम का एक दैत्य था। किन्तु, वह मेरा अनन्य भक्त, दानी, सत्यवादी तथा ब्राह्मणों की सेवा करने वाला था। वह विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था तथा नित्य यज्ञ, हवन, तप आदि का आयोजन किया करता था। अपनी इसी भक्ति के प्रभाव से तथा इंद्र से द्वेष के कारण, वह समस्त देवतागण को जीतकर स्वर्ग में देवेन्द्र के स्थान पर राज्य करने लगा था। राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार कर लिया था, यह बात देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता को सहन नहीं हुयी तथा वे भगवान श्रीहरि के समक्ष जा कर प्रार्थना करने लगे थे। अन्त में मैंने वामन रूप धारण कर लिया था तथा तेजस्वी ब्राह्मण बालक के अवतार में राजा बलि पर विजय प्राप्त कर ली थी।"
       इतना सुनकर अर्जुन ने कहा की- "हे प्रभु! आपने किस प्रकार वामन रूप धारण करके उस बलि को जीता, कृपया यह कथा भी विस्तारपूर्वक बताइये।"
       भगवान श्रीकृष्ण जी ने उत्तर दिया की - "मैंने वामन रूप धारण कर राजा बलि से याचना की- हे राजन! तुम मुझे केवल तीन पग भूमि दान दे दो, इससे तुम्हें तीन लोक के दान का फल प्राप्त होगा। इस कथन पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने भगवान विष्णु के इस मायाजाल से राजा बली को अवगत भी करवाया किन्तु राजा बलि ने इस छोटी-सी याचना को तुरंत ही स्वीकार कर लिया तथा भूमि देने के लिए वचन-बद्ध हो गया। राजा के वचन देते ही, मैं अपना आकार बढ़ाने लगा तथा भूलोक में पैर, भुवन लोक में जंघा, स्वर्ग लोक में कमर, महलोक में पेट, जनलोक में हृदय, तपलोक में कण्ठ तथा सत्यलोक में मुख रखकर अपने शीर्ष को ऊँचा उठा लिया। उस समय सूर्य, नक्षत्र, इन्द्र तथा अन्य देवता मेरी स्तुति गाने लगे थे। तब मैंने राजा बलि से पूछा कि हे राजन! अब मैं तीसरा पग कहाँ रखूँ। इतना सुनकर राजा बलि ने अपना शीर्ष नीचे कर लिया था। तब मैंने अपना तीसरा पग उसके शीर्ष पर रख दिया तथा इस प्रकार देवताओं के हित के लिए मैंने अपने उस असुर भक्त को रसातल में पाताल-लोक में पहुँचा दिया था तब वह मुझसे विनती करने लगा था। जिस पर मैने उससे कहा कि हे राजा बलि! मैं सदैव तुम्हारे साथ ही रहूँगा। अतः भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की इस परिवर्तिनी नामक एकादशी के दिन मेरी एक प्रतिमा राजा बलि के पास रहती है तथा एक क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करती रहती है।
       हे पार्थ! इस एकादशी को विष्णु भगवान सोते हुए करवट बदलते हैं। इस दिन त्रिलोकी-नाथ श्री विष्णु भगवान की पूजा की जाती है। इसमें चावल तथा दही सहित चाँदी का दान दिया जाता है। इस दिन रात्रि को जागरण करना श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार उपवास करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर स्वर्ग लोक को जाता है। जो मनुष्य पापों को नष्ट करने वाली इस एकादशी व्रत की कथा सुनते हैं, उन्हें अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।”
       इस कथा से यह सार प्राप्त होता है की, दान करने के उपरान्त मनुष्य को कभी अभिमान नहीं करना चाहिये। राजा बलि ने अभिमान किया तथा पाताल को चला गया। तथा इस कथा से इस बात का भी बोध होता है कि प्रत्येक कार्य में अति सदा अनिष्ठ ही होती है।


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