श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत
विधि | व्रत कथा | Shravan Putrada Ekadashi 2018 |
Ekadashi Vrat in Hindi
22 अगस्त 2018 बुधवार पुत्रदा एकादशी
व्रत कथा व पूजा विधि
Putrada Ekadashi Vrat in Hindi श्रावण शुक्ल एकादशी श्रावण पुत्रदा
एकादशी कथा Shravan Putrada Ekadashi पुत्रदा एकादशी व्रत
विधि Shravan Putrada पुत्रदा एकादशी व्रत Putrada
Ekadashi Vrat Vidhi in Hindi श्रावण पुत्रदा एकादशी Ekadashi Vrat एकादशी
तिथियाँ 2018 पुत्रदा एकादशी व्रत विधि २०१८
श्रावण पुत्रदा एकादशी #EkadashiVrat श्रावण पुत्रदा एकादशी की पौराणिक कथा | Shravan
Putrada Ekadashi Pauranik Katha | 2018 Ekadashi Vrat Katha in Hindi Shravan Putrada ekadashi 2018 श्रावण पुत्रदा
एकादशी । Shravan Putrada Ekadashi । Shravan Putrada
Ekadashi 2018 । Shravan Putrada Ekadashi Vrat Shravan Putrada Ekadashi Aug 2018 Shravan
Putrada ekadashi date and time Shravan Putrada ekadashi
significance in hindi Shravan Putrada ekadashi significance Shravan Putrada ekadashi vrat katha Shravan
Putrada ekadashi vrat vidhi in hindi श्रावण पुत्रदा एकादशीश्रावण
पुत्रदा एकादशी का महत्व पूजा सावन महीना 2018 Shravan Putrada Ekadashi
Importance श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत व
पूजा विधि Shravan Putrada #ekadashi vrat puja vidhi श्रावण पुत्रदा #एकादशी पूजा-विधि । Shravan Putrada Ekadashi
Puja Vidhi श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत
कथा Shravan Putrada ekadashi vrat katha
वैदिक विधान कहता है की, दशमी
को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना
चाहिए। हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं। किन्तु
अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है। भगवानजी को एकादशी
तिथि अति प्रिय है चाहे वह कृष्ण पक्ष की हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण इस दिन
व्रत करने वाले भक्तों पर प्रभु की अपार कृपा-दृष्टि सदा बनी रहती है अतः प्रत्येक
एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान श्रीविष्णु की पूजा करते हैं
तथा व्रत रखते हैं। किन्तु इन सभी एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी है जिसका
व्रत करने से संतानहीन अथवा पुत्रहीन जातको को संतान सुख की प्राप्ति अति शीघ्र हो
जाती है। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले इस व्रत को पुत्रदा एकादशी
का व्रत कहा जाता है। पद्म पुराण के अनुसार जिन दम्पत्तियों को कोई पुत्र नहीं
होता उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। प्रत्येक
वर्ष में 2 बार पुत्रदा एकादशी का व्रत, पौष तथा श्रावण मास
के शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। अतः श्रावण तथा पौष मास की एकादशियों का
महत्व एक समान ही माना जाता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष की
एकादशी दिसम्बर या जनवरी के महीने में आती है तथा श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी
जुलाई या अगस्त के महीने में आती है। श्रावण मास की शुक्ल एकादशी को श्रावण
पुत्रदा एकादशी कहा जाता है तथा इस एकादशी को पवित्रोपना एकादशी या पवित्र एकादशी
के नाम से भी जाना जाता है।
हिन्दु
धर्म में जन्म-मरण से जुड़े संस्कारों का अत्यधिक महत्व होता है। पुत्र के द्वारा
किये जाने वाले अन्तिम संस्कारों से ही माता-पिता की आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती
है। श्राद्ध की नियमित क्रियायें भी पुत्र द्वारा ही सम्पादित की जाती है। ऐसा
माना जाता है कि माता-पिता की मृत्यु के पश्चात पुत्र द्वारा श्राद्ध करने से मृतक
की आत्मा तृप्त होती है। अतः यदि
कोई पुत्रहिन या नि:संतान व्यक्ति यह व्रत पूर्ण विधि-विधान तथा श्रद्धाभाव से
करता है तो उसे संतान सुख अवश्य ही प्राप्त होता है। श्रावण पुत्रदा एकादशी का
श्रवण एवं पठन करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश होता है, वंश में वृद्धि होती है तथा मनुष्य भूलोक में
सभी सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग प्राप्त करता है।
एकादशी व्रत का प्रारम्भ दशमी तिथि से ही हो जाता है। पुराणों
के अनुसार पुत्रदा एकादशी व्रत रखने वाले व्यक्ति को दशमी के दिन लहसुन, प्याज आदि तामसी आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए
साथ ही दशमी तिथि के साँयकाल में सूर्यास्त के पश्चात भोजन भी ग्रहण नहीं करना
चाहिए। दशमी के दिन किसी प्रकार का भोग-विलास नहीं करना चाहिए तथा रात्रि में
भगवानजी का नाम स्मरण करते हुए शयन करना चाहिए।
पुत्रदा एकादशी के दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर
स्नानादि से शुद्ध हो जाए तथा स्वच्छ वस्त्र धारण कर भगवान् श्री विष्णु जी की
प्रतिमा के समक्ष घी का दीपक प्रज्वलित करे। इस दिन,
विशेषकर विष्णु जी के बाल-गोपाल रूप की पूजा अवश्य करे। भगवान्
विष्णु जी की पूजा में तुलसी, ऋतु फल एवं तिल का प्रयोग अवश्य
करें। एकादशी का व्रत रखने वाले जातक अपना मन शांत एवं स्थिर रखें। किसी भी प्रकार
की द्वेष भावना या क्रोध मन में न लायें। व्रत के दिन परनिंदा करने या सुनने से दूर
रहे। व्रत के दिन अन्न वर्जित है, अतः सम्पूर्ण दिन निराहार
रहें तथा साँयकाल पूजा सम्पन्न होने के पश्चात आवश्यकता के अनुसार फलाहार कर सकते
है। एकादशी के व्रत में रात्रि जागरण का अधिक महत्व माना गया है। यथासंभव रात में
जागरण करे तथा भगवान का भजन कीर्तन करें। एकादशी के दिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ
करने से भगवान विष्णुजी की विशेष कृपा-दृष्टि प्राप्त होती है। व्रत अगले दिन
अर्थात द्वादशी को भगवान विष्णु जी को अर्घ्य देकर पूजा संपन्न करनी चाहिए तथा
व्रत का पारण सही मुहूर्त में करे अन्यथा व्रत का लाभ प्राप्त नहीं होगा। द्वादशी
तिथि पर ब्राह्मणो को भोजन करवाने तथा दक्षिणा से उन्हें संतुष्ट करने के पश्चात
उनसे आशीर्वाद प्राप्त करके स्वयं भोजन ग्रहण करें। यदि आप किसी कारण व्रत नहीं
रखते हैं तो भी एकादशी के दिन चावल का प्रयोग भोजन भूलकर भी ना करे।
पुत्रदा एकादशी व्रत का पारण
एकादशी के व्रत की समाप्ती करने की
विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक
उसका विधिवत पारण न किया जाए। एकादशी
व्रत के अगले दिन सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता है।
ध्यान
रहे,
१.
एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना
अति आवश्यक है।
२.
यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो
एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही होता है।
३.
द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता
है।
४.
एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५.
व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है।
६.
व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने
से बचना चाहिए।
७.
जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत समाप्त करने से पहले
हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की
पहली एक चौथाई अवधि होती है।
८.
यदि,
कुछ कारणों की वजह से जातक प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।
पुत्रदा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
सभी एकादशियों के महत्व को सही से व्याख्यायित करने के लिये हमारे
धार्मिक ग्रंथों में एकादशियों से जुड़ी पौराणिक कथा प्राप्त होती है। श्रावण
पुत्रदा की व्रत कथा कुछ इस प्रकार है। बात उस समय की है जब युधिष्ठिरजी कृष्ण
भगवान से कहने लगे कि “हे मधुसूदन! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? कृपा करके व्रत करने की विधि तथा इसका महत्व बताइये”।
कृष्ण भगवान कहने लगे कि “इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। आप शांतिपूर्वक इसकी कथा
सुनिए। क्योकि इसकी कथा सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल प्राप्त होता है”।
द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम का
एक नगर था, जिसमें महीजित नामक एक
राजा राज्य करते थे, वे अत्यंत ही नेमी-धर्मी राजा थे। राजा
अपनी प्रजा से पुत्र के समान प्रेम-भाव रखते थे, प्रजा की सुख-सुविधाओं
का, न्याय का, ब्राह्मणों के सम्मान का,
दान-पुण्य का उन्हे भली-भांति से ध्यान रहता था। किन्तु पुत्रहीन
होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। उसका मानना था कि जिसके
संतान न हो, उसके लिए यह लोक तथा परलोक दोनों ही दु:खदायक
होते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को
पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।
अतः वृद्धावस्था आती देख, राजा ने दरबार में ज्ञानवान ब्राह्मणों, पुजारी-पुरोहितों
तथा प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया तथा कहा की- “हे ज्ञानियों, ब्राह्मण देवताओ तथा मेरे प्रिय प्रजाजनों! मेरे खजाने में अन्याय से
उपार्जन किया हुआ धन नहीं रखा है। ना मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन बलपूर्वक
छीना है। किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा को
पुत्र के समान मान रहा हूँ। मैं अपराधियों को भी पुत्र तथा बाँधवो की तरह दंड देता
हूँ। कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको एक समान मानता हूँ। सज्जनों की सदा पूजा करता
हूँ। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरा कोई पुत्र नहीं है। अतः मैं
अत्यंत दु:खी रहता हूँ, इसका क्या कारण है? कोई बता सकता है?”
प्रजा
भी राजा के यहां संतान न होने से दुखी तो पहले से ही थी किन्तु राजा के इस प्रकार
अपनी व्यथा प्रकट करने से सभी की आंखों से अश्रुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। राजा
महीजित की मन की व्यथा सुनने के पश्चात मंत्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि उपाय जानने
के लिए वन की ओर चल दिये। वन में उन्होने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए।
राजा की उत्तम मानोकामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को खोजते रहे।
कई
दिनो के पश्चात, एक दिन, एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध, धर्म के ज्ञाता, श्रेष्ट तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए तथा निराहार रहने वाले, जितेंद्रीय,
जितात्मा, क्रोध-हिन, सनातन
धर्म के सभी तत्वों के ज्ञाता तथा समस्त शास्त्रों के ज्ञानी, महात्मा लोमश मुनि जी को देखा, जिनका कल्प के
व्यतीत होने पर शरीर का केवल एक रोम गिरता था। उन्होने लोमेश ऋषि को अपनी मनोव्यथा
सुनाते हुए कहा की “हे महर्षि! आप हमारी बात जानने में ब्रह्माजी से भी अधिक समर्थ
हैं। महिष्मति पुरी के धर्मात्मा राजा महीजित, जो की प्रजा
का पुत्र के समान पालन करते है। वह पुत्रहीन होने के कारण अत्यंत दु:खी रहते है। हम
सभी उनकी ही प्रजा हैं। अत: हमारे राजा के दु:ख से हम भी अत्यंत दु:खी हैं। आपके
दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य नष्ट हो जाएगा क्योंकि
महान पुरुषों के दर्शन मात्र से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। अतः आप कृपा करके हमारे
राजा के पुत्र होने का कोई उपाय बताएँ।
यह बात सुनने के पश्चात ऋषि लोमेश जी ने
कुछ देर के लिए अपने नेत्र बंद किए तथा राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर आगे
बताने लगे कि “यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन व्यापारी (वैश्य) था। निर्धन होने
के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता
था। एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय एक जलाशय
पर जल पीने गया। वह पिछले दो दिन से भूखा-प्यासा था। उसी स्थान पर एक तत्काल की
ब्याही हुई प्यासी गौ-माता जल पी रही थी। राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए
हटा दिया तथा स्वयं जल पीने लगा, अतः
राजा को यह दु:ख सहना पड़ रहा है। अज्ञानवश ही किन्तु एकादशी उपवास संपन्न करने के
फलस्वरूप इस जन्म में वह राजा बना तथा प्यासी गाय को जल पीने से रोकने के कारण
पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है”।
यह सब सुनकर सभी कहने लगे कि “हे श्रेष्ठ
ऋषिवर! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा होता है। अत: कृपा कर के आप ऐसा
कोई उपाय बताइए जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए”। इस पर लोमेश मुनि जी कहने
लगे कि “श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सभी यह व्रत पूर्ण श्रद्धा-भाव से करो तथा
रात्रि को जागरण करो, जीससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप
नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की प्राप्ति भी अवश्य
हो जाएगी। लोमेश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित समस्त प्रजा नगर को लौट आई
तथा जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सभीने पुत्रदा एकादशी का व्रत
तथा जागरण विधि-विधान पूर्वक किया। जिस के पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण
किया तथा प्रसवकाल समाप्त होने पर उन्हें एक तेजस्वी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
अतः श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम
पुत्रदा एकादशी रखा गया है। अत: संतान सुख की इच्छा करने वाले इस व्रत को अवश्य
करें। इसके कथा को सुनने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है तथा वह भूलोक
में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त करता है।
No comments:
Post a Comment