अन्नपूर्णा जयन्ती पूजा- विधि, महत्व, मंत्र-आरती, प्रार्थना तथा पौराणिक व्रत-कथा | देवी अन्नपूर्णा जी की आरती | About Annapurna Jayanti | Annapurna Jayanti 2018
About Annapurna Jayanti |
भारतीय पंचांग में मार्गशीर्ष
मास की पूर्णिमा को "अन्नपूर्णा जयन्ती" के रूप
में मनाया जाता हैं। इस दिन ‘त्रिपुर भैरवी जयन्ती’ भी मनाई जाती हैं। ऐसी मान्यता हैं कि प्राचीन काल में एक बार जब पृथ्वी
पर अन्न की कमी हो गयी थी, तब माँ पार्वती (गौरी) ने अन्न की
देवी, ‘माँ
अन्नपूर्णा’ के रूप में अवतरित हो पृथ्वी लोक पर अन्न
उपलब्ध कराकर समस्त मानव जाति की रक्षा की थी। अतः अन्नपूर्णा जयन्ती के दिन माता
पार्वती के अन्नपूर्णा रूप की पूजा की जाती हैं। अन्नपूर्णा माता भोजन एवम रसौई की
देवी कही जाती हैं। अन्नपूर्णा जयन्ती पर विशेष तौर से घर में चूल्हे तथा रसोई गैस
आदि का पूजन किया जाता हैं। यह माना जाता हैं कि इस दिन रसोई आदि का पूजन करने से
घर में कभी भी धन धान्य की कमी नहीं रहती तथा अन्नपूर्णा देवी की कृपा बनी रहती हैं।
मार्गशीर्ष मास का विशेष महत्त्व हैं। यह माह गेहूँ की बुआई के लिए अच्छा रहता हैं,
अतः अन्नदाता माने जाने वाले किसान अच्छी फ़सल के लिए अन्नपूर्णा
जयन्ती पर अन्नपूर्णा देवी की पूजा करते हैं। जीवन में अन्न का महत्व भगवान के
तुल्य माना जाता हैं। यह अन्न ही जीवन देता हैं, हम सभी को
इसका आदर करना चाहिये। कहते हैं जिनके घर में अन्न का सम्मान किया जाता हैं,
रसौई घर में स्वच्छ सफाई रखी जाती हैं, उनके
घर में अन्नपूर्णा देवी का आशीर्वाद रहता हैं। जिन घरो पर अन्नपूर्णा देवी का
आशीर्वाद रहता हैं, वे घर धन एवम धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।
विपत्ति के समय भी उनके घर कभी रसौई घर रिक्त नहीं रहता, अर्थात
ऐसे घर के सदस्य धन की कमी के कारण कभी भूखे नहीं सोते। अन्नपूर्णा जयन्ती के दिन
माँ अन्नपूर्णा की पूजा की जाती हैं तथा इस दिन दान-पुण्य करने का विशेष महत्त्व हैं।
॥ कब हैं अन्नपूर्णा जयन्ती ॥
माता अन्नपूर्णा का
जन्म दिन को अन्नपूर्णा जयन्ती के रूप में मनाया जाता हैं। यह दिन मार्गशीर्ष
हिंदी मासिक की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता हैं। मार्गशीर्ष मास का विशेष महत्त्व हैं।
इस दिन दान का महत्व होता हैं।
॥ अन्नपूर्णा जयन्ती का महत्त्व ॥
अन्नपूर्णा देवी की पूजा में रसौई घर को स्वच्छ
रखा जाता हैं, इससे सभी को यह सन्देश पहुँचता हैं, कि भोज्य पदार्थों वाले स्थानों को स्वच्छ रखना चाहिये। रोटी, कपड़ा तथा मकान इंसान की महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं। प्राचीन काल से लेकर आज
तक व्यक्ति अपने साथ-साथ दूसरों की खुशहाली की प्रार्थना करता रहा हैं। ठीक इसी
प्रकार सबके कल्याण की भावना के लिए अन्नपूर्णा जयन्ती मनाई जाती हैं।इसके कारण
लोगो में यह संदेश भी पहुँचता हैं, कि अन्न का अपमान अर्थात
उसे व्यर्थ फेकना नहीं चाहिये। इस दिन के कारण मनुष्य को अन्न के महत्व का ज्ञान
होता हैं, जिससे उनमे आदर का भाव आता हैं, इसी कारण मनुष्य में अभिमान नहीं आता। भारतीय संस्कृति के पर्वों में
अन्नपूर्णा जयन्ती का वैज्ञानिक महत्व भी हैं। इस त्योहार पर अन्नपूर्णा देवी को
माँ गौरी का स्वरूप माना गया हैं। भगवान शिव के साथ उनकी भी पूजा होती हैं। ये
पर्व जहाँ धार्मिक आस्था को बरकरार रखते हैं, वहीं ये
सामाजिक व्यवस्था का भी हिस्सा हैं। धर्म के नाम पर होने वाले भंडारे भी
अन्नपूर्णा का ही हिस्सा हैं। कभी भी अन्न आदि को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यही इस
त्योहार का मुख्य संदेश हैं।
॥ अन्नपूर्णा जयन्ती पूजा विधि ॥
मार्गशीर्ष पूर्णिमा
के दिन अन्नपूर्णा माता की पूजा की जाती हैं, इस दिन घर में
रसौई घर को धो कर स्वच्छ किया जाता हैं। इस दिन माता गौरी, पार्वती
मैया एवम शिव जी की पूजा की जाती हैं। घर के चूल्हे को धोकर उसकी पूजा की जाती हैं।
घर के रसौई घर को गुलाब जल, गंगा जल से शुद्ध किया जाता हैं।
॥ अन्नपूर्णा देवी का मंत्र: ॥
अन्नपूर्णा सदा
पूर्णा शंकर प्राणवल्लभे,
ज्ञान वैराग्य
सिद्ध्यारार्थम भिक्षम देहि च पार्वती।
माता में पार्वती
देवी पिता देवो महेश्वरः,
बान्धवः
शिवाभाक्ताश्च स्वदेशो भुव्त्रयम।।
॥ अन्नपूर्णा जयन्ती में स्त्रियों की भूमिका ॥
घर में धन धान्य का भंडार हो, लेकिन उसे स्त्री ही भली भांति व्यवस्थित कर सकती हैं। अतः इस पूजा में
स्त्रियों का विशेष महत्व होता हैं। कई विद्वानों के अनुसार स्त्रियों को भी
अन्नपूर्णा माना गया हैं। अतः स्त्रियों द्वारा ही अन्नपूर्णा के दिन गैस तथा
चूल्हे पर चावल तथा मिष्ठान का भोग लगाने के साथ ही एक दीपक जलाया जाता हैं,
जिससे घर में कभी भंडार ख़ाली न रहे। भारतीय पंचांग में मार्गशीर्ष
मास का विशेष महत्त्व हैं। यह माह गेहूँ की बुआई के लिए अच्छा रहता हैं, अतः भी अन्नदाता माने जाने वाले किसान अच्छी फ़सल के लिए अन्नपूर्णा
जयन्ती पर अन्नपूर्णा देवी की पूजा करते हैं।
॥ अन्नपूर्णा जयन्ती पौराणिक व्रत कथा ॥
॥ प्रथम कथा ॥
पुराणों के अनुसार
जब पृथ्वी पर पानी एवम अन्न खत्म होने लगा, तब लोगो में
हाहाकार मच गया। इस त्रासदी के कारण सभी ने ब्रह्मा एवम विष्णु भगवान की आराधना की
तथा अपनी समस्या कही। तब दोनों भगवानो ने शिव जी को योग निन्द्रा से जगाया तथा
सम्पूर्ण समस्या से अवगत कराया। समस्या की गंभीरता को जान इसके निवारण के लिए
स्वयं शिव ने पृथ्वी का निरक्षण किया। उस समय माता पार्वती ने अन्नपूर्णा देवी का
रूप लिया। इस प्रकार शिव जी ने अन्नपूर्णा देवी से चावल भिक्षा में मांगे तथा
उन्हें भूखे पीढित लोगो के मध्य वितरित किया। इस प्रकार उस दिन से पृथ्वी पर
अन्नपूर्णा जयन्ती का पर्व मनाया जाता हैं। इससे मनुष्य में अन्न के प्रति आदर का
भाव जागृत होता हैं तथा वे अन्न का संरक्षण करने के लिए प्रेरित होते हैं।
इसी प्रकार एक तथा
कथा कही जाती हैं, जब सीता हरण के बाद भगवान राम माता सीता
की खोज में अपनी वानर सेना के लिए घूम रहे थे, तब स्वयं माता
अन्नपूर्णा ने उन्हें भोजन कराया था तथा लम्बे समय तक सभी का साथ दिया था।
कहते हैं जब शिव
भगवान काशी में मनुष्य को मोक्ष दे रहे थे, तब माता पार्वती,
अन्नपूर्णा के रूप में जीवित जनों के भोजन की व्यवस्था स्वयम देखती
थी।
इस प्रकार कई कारणों
ने अन्नपूर्णा जयन्ती का महत्व मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक हैं, इससे संरक्षण एवम सम्मान का भाव जागता हैं तथा मनुष्य अन्न को व्यर्थ नहीं
फेंकता।
॥ द्वितीय कथा ॥
काशी निवासी धनजय की
पत्नी का नाम सुलक्षणा था। उसे विविध प्रकार के सब सांसारिक सुख प्राप्त थे,
परन्तु निर्धनता ही एक दुःख का कारण थी। यह दुःख उसको हर समय सताता
रहता था। एक दिन सुलक्षणा अपने पति से बोली- स्वामी, आप कुछ
उद्यम करो तो काम बने, इसप्रकार कब तक काम चलेगा। सुलक्षणा
की बात धनंजय के मन में बैठ गयी तथा वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर को खुश करने को पूजा
में बैठ गया। कहने लगा - हे देवादि देव विश्वेश्वर मुझे पूजा-पाठ कुछ आता नहीं,
केवल तुम्हारे भरोसे बैठा हूँ, इतनी कृपा कर,
दो- तीन दिन तक भूखा- प्यासा बैठा रहा। यह देख कर भगवान् शंकर ने
उसके कान में अन्नपूर्ण... अन्नपुर्णा... अन्नपुर्णा... इसप्रकार तीन बार कहा। यह
कौन, क्या कह गया? इस सोच में धनंजय
पड़ गया तथा मंदिर से आते हुए ब्रह्मिनों को देखकर पूछने लगा- पंडितजी, यह अन्नपूर्ण कौन हैं? वे बोले- तू अन्न छोड़ बैठा हैं
सो हर समय अन्न की ही बात सूझती हैं। जा घर जा, अन्न ग्रहण
कर। धनंजय अपने घर गया तथा पत्नी से सारा वृतांत कहा। वह बोली - हे नाथ ! चिंता मत
करो। स्वयं शंकरजी ने यह मंत्र दिया हैं, वह स्वयं ही इसका
खुलासा करेंगे। आप फिर जाकर उनकी आराधना करो। धनंजय फिर जैसा का तैसा पूजा में बैठ
गया। रात्रि में शंकरजी ने आज्ञा दी की तू पूर्व दिशा में जा, वहां इसका योग लगेगा। तथा तू सुखी होगा। महादेव बाबा का कहना मान वह पूर्व
दिशा को चल दिया। वह अन्नपुर्णा - अन्नपुर्णा कहता जाता तथा रस्ते में फल खता जाता,
झरनों का पानी पीता जाता। इस प्रकार कितने ही दिन चलता गया। वहां
उसे चाँदी-सी चमकती वन की शोभा देखने में आई। सुन्दर सरोवर देखने में आया तथा उसके
किनारे कितनी ही अप्सराएं झुण्ड बनायें बैठी हैं। एक कथा कहती थी तथा सब माता
अन्नपुर्णा-अन्नपुर्णा इसप्रकार बार-बार कहती थी कि आज अगहन मास कि उजियाली रात्रि
थी। आज से ही इस व्रत का आरम्भ था। जिस शब्द कि खोज को मै घर से निकला था वह शब्द
आज मुझे सुनने को मिला हैं।
धनंजय उनके पास जाकर पूछता हैं, हे देवियों ! आप ये क्या करती हो? वे बोलीं, हम माता अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं। व्रत करने से क्या होता हैं?
यह किसी ने किया भी हैं इसको कब किया जाये? यह
समझा कर मुझसे कहो। वे कहने लगी, इस व्रत को सभी कर सकते हैं।
२१ दिन तक के लिए २१ गांठ का सूत्र लेना। २१ दिन न बने तो १ दिन का उपवास करना। यह
भी न बने तो केवल कथा सुनकर माता का प्रसाद लेना। निराहार रहकर कथा करना। कथा
सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्ते को दस सुपारी, गुवारपाठा
के वृक्ष को सामने रख कर, दीपक को साक्षी रख कर, सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव
की कथा सुनना। बिना कथा सुनाये मुख में दाना न डालना। यदि भूल में कुछ पड़ जाये तो
एक दिन फिर उपवास करना तथा व्रत में क्रोध न करे, झूठ न बोले।
धनंजय बोला, इस व्रत के करने से क्या होगा वे कहने लगी,
इसके करने से अंधों को नेत्र मिले, लूलों को
पाँव मिले, निर्धन के घर धन आवे, बाँझ
को संतान मिले, मूर्ख को विध्या आवे, जो
जिस कामना से व्रत करें माता उनको इच्छा पूरी करती हैं। धनंजय बोला, बहिनों, मेरे पास भी धन नहीं, विद्द्या
नहीं, कुछ भी तो नहीं हैं। मैं दुखिया तथा दरिद्र ब्रह्मिण
हूँ। मुझे उस व्रत का सुख डौगी। हाँ भाइ तेरा कल्याण हो, हम
तुझे देंगीं। ले व्रत का मंगलसूत्र ले। धनंजय ने व्रत किया तथा पूरा हुआ। तभी
सरोवर में से २१ खंड की स्वर्ण सीढ़ी हीरा, मोती जड़ी प्रकट
हुई। धनंजय अन्नपूर्णा, अन्नपूर्णा कहता जाता था। इस प्रकार
कितनी ही सीढियां उतर आया तो क्या देखता हैं की करोड़ों सूर्यों के सामान
प्रकाशमान अन्नपूर्णाजी का मंदिर हैं। उसके स्वर्ण सिंहासन पर अन्नपूर्णा विराजमान
हैं। सामने भिक्षा हेतु शंकर भगवान खड़े हैं। देवांगनाएँ चंवर डुलाती हैं। कितनी
ही हथियार बंधे पहरा देती हैं। धनंजय दौड़ कर माता के चरणों पर गिर पड़ा। माता
उसके मन का क्लेश जान गई। धनंजय कहने लगा, माता ! आप तो
अंतर्यामी हो, आपको अपनी दशा क्या बताऊँ। माता बोली, तुने मेरा व्रत किया हैं जा तेरा संसार सत्कार करेगा। माता ने धनंजय की
जिव्हा पर बीज मंत्र लिख दिया। अब तो उसके रोम रोम में विध्या प्रविष्ठ हो गई। इतने
में क्या देखता हैं की काशी विश्वनाथ के मंदिर ने खड़ा हुआ हैं। माता का वरदान ले
कर धनंजय घर आया तथा सुलक्षणा से सब बात कही। माताजी की कृपा से अटूट संपत्ति
उमड़ने लगी। छोटा घर बहुत बड़ा गिना जाने लगा। जैसे शहद के छत्ते में मक्खियाँ जमा
हो जाती हैं उसी प्रकार अनेक सगे-संबधी आकर उसकी बड़ाई करने लगे। इतना धन, इतना बड़ा सुन्दर घर संतान नहीं तो इस कमी का कौन भोग करेगा। सुलक्षणा के
संतान नहीं हैं, अतः तुम दूसरा विवाह करो। अनिच्छा होते हुवे
भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा। सटी सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा। इस प्रकार
दिन बीतते गए फिर अग्घन मास आया तथा नए बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने पति से
कहलवाया की व्रत व्रत के प्रभाव से हम सुखी हुए हैं, इस कारण
यह व्रत हमें छोड़ना नहीं चाहिए। यह माता जी का प्रताप हैं, हम
इतने सम्पन्न व् सुखी हुए हैं। सुलक्षणा की बात सुन कर धनंजय उसके यहाँ आया तथा
व्रत में बैठ गया। नै वधु को इस बात की खबर नहीं थी। वह धनंजय के आने की राह देख
रही थी। दिन बीतते गए तथा व्रत पूरा होने में तीन दिन रहे की नै पत्नी को खबर मिली
तथा उसके मन में इर्ष्या की ज्वाला दहक रही थी। सुलक्षणा के घर पहुची तथा झगडा
करके वह धनंजय को अपने साथ ले आई तथा नए घर में धनंजय को थोड़ी देर के लिए निद्रा
ने आ घेरा।
उसी समय नयी पत्नी ने उसके व्रत का सूत्र
तोड़कर अग्नि में फेंक दिया। अब तो माताजी बड़ी क्रोधित हुई। घर में अचानक आग लग
गयी, सब कुछ जलकर राख हो गया। सुलक्षणा जान गयी तथा अपने पति
को वापस अपने घर ले आई। नयी पत्नी रूठकर अपने पिता के घर जा बैठी। संसार में दो
जीव थे उनमे से अब एक ही रह गया। पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा बोली- हे
नाथ ! घबराना नहीं। माताजी की कला अलौकिक हैं पुत्र कुपुत्र हो जाता हैं पर माता
कुमाता नहीं होती, आप माता में श्रृद्धा रखें तथा फिर आराधना
शुरू करें। वे अवश्य हमारा कल्याण करेंगी। धनंजय फिर माता का व्रत करने लगा। फिर
वही सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई उसमे अन्नपूर्ण माँ कह कर उतर गया। वहां माता के चरणों
में रुदन करने लगा। माता प्रसन्न होकर बोली - यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले तथा
इसका पूजन करना तू फिर सुखी हो जायेगा। जाओ तुमको मेरा आशीर्वाद हैं तेरी पत्नी
सुलक्षणा ने श्रृद्धा से मेरा व्रत किया हैं उसको मैंने पुत्र दिया। धनंजय ने
आँखें खोली तथा स्वयं को काशी विश्वनाथ मंदिर में खड़ा पाया, वहां से फिर उसी प्रकार घर आया। इधर सुलक्षणा के दिन चढ़े तथा महिना पूरे
होते ही पुत्र का जन्म हुआ। ग्राम में आश्चर्य की लहर दौड़ गयी। मान्यता आने लगी। इसीप्रकार
उस ग्राम के निःसंतान सेठ के पुत्र होने से उसने माता अन्नपूर्णा का सुंदर मंदिर
बनवाया। जिसमे धूमधाम से माताजी पधारी। यज्ञ किया तथा धनंजय को मंदिर का आचार्य पद
दिया तथा जीविका के लिए मंदिर की दक्षिणा तथा रहने के लिए बड़ा सुंदर भवन बनवा
दिया। धनंजय स्त्री-पुत्र के साथ वहां रहने लगा। माताजी की चढौत्री से भरपूर आमदनी
होने लगी। इधर नयी वधु के पिता के घर डाका पड़ा, सब कुछ लूट
गया, वे भिक्षा मांग कर पेट भरने लगे। सुलक्षणा ने जब यह सब
सुना तो उन्हें बुला भेजा। अलग घर में राख दिया तथा उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर
दिया। धनंजय, सुलक्षणा तथा उसका पुत्र माताजी की कृपा से
आनंद करने लगे। माताजी ने जैसे इनके भंडार भरे वैसे सबके भरे।
॥ अन्नपुर्णा देवी की प्रार्थना ॥
सिद्ध सदन सुन्दर बदन,
गणनायक महाराज
दास आपका हूँ सदा
कीजै जन के काज।।
जय शिव शंकर गंगाधर,
जय जय उमा भवानी
सिया राम कीजै कृपा
हरी राधा कल्याणी।।
जय सरस्वती जय
लक्ष्मी, जय जय गुरु दयाल
देव विप्र तथा साधू
जय भारत देश विशाल।।
चरण कमल गुरुजनों के,
नमन करूँ मई शीश
मो घर सुख संपत्ति
भरो, दे कर शुभ आशीष।।
दोहा,हाजिर हैं सब जगह पर, प्रेम रूप अवतार
करें न देरी एक पल,
हो यदि सत्य विचार।।
प्रेमी के बस में
बंधे, मांगे सोई देत
बात न टाले भक्त की,
परखे सच्चा हेत।।
श्रृद्धा वाले को
ज्ञान मिले, तत्पर इन्द्रीवश वाला हो
पावे जो ज्ञान शीघ्र
ही सब सुख शांति स्नेह निराला हो।।
वन में दावानल लगी,
चन्दन वृक्ष जरात
वृक्ष कहे हंसा सुनो,
क्यों न पंख खोल उड़ जात।।
प्रारब्ध पहले रखा
पीछे रचा शरीर
तुलसी माया मोह फंस,
प्राणी फिरत अधीर।।
तुलसी मीठे वचन से,
सुख उपजत चहुँ ओर
वशीकरण यह मंत्र हैं,
तज दे वचन कठोर।।
मान मोह आसक्ति तजि,
बनो अद्ध्यात्म अकार
द्वंद मूल सुख दुःख
रहित पावन अवयव धाम।।
तामे तीन नरक के
द्वार हैं, काम क्रोध अरु मद लोभ
उन्हें त्याग
किन्हें मिळत, आत्म सुख बिन क्षोभ।।
सब धर्मों को त्याग
कर माँ शरण गति धार
सब पाँपों से मै
तेरा करूँ शीघ्र उद्धार।।
यह गीता का ज्ञान हैं,
सब शास्त्रों का सार
भक्ति सहित जो नर
पढ़ें लहे आत्म उद्धार।।
गीता के सम ज्ञान
नहीं, मंत्र न प्रेम रे आन
शरणागति सम सुख नहीं,
देव न कृष्ण देव।।
अमृत पी संतोष का,
हरी से ध्यान लगायें
सत्य राख संकल्प मन
विजय मिलें जहा जाय।।
मन चाही सब कामना,
आप ही पूरण होय
निश्चय रखो भगवान्
पर, जल में दे दुःख खोय।।
॥ देवी अन्नपूर्णा जी की आरती ॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
जो नहीं ध्यावे
तुम्हें अम्बिके, कहां उसे विश्राम।
अन्नपूर्णा देवी नाम
तिहारो, लेत होत सब काम॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
प्रलय युगान्तर तथा
जन्मान्तर, कालान्तर तक नाम।
सुर सुरों की रचना
करती, कहाँ कृष्ण कहाँ राम॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
चूमहि चरण चतुर
चतुरानन, चारु चक्रधर श्याम।
चंद्रचूड़ चन्द्रानन
चाकर, शोभा लखहि ललाम॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
देवि देव! दयनीय दशा
में दया-दया तब नाम।
त्राहि-त्राहि
शरणागत वत्सल शरण रूप तब धाम॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
श्रीं, ह्रीं श्रद्धा श्री ऐ विद्या श्री क्लीं कमला काम।
कांति, भ्रांतिमयी, कांति शांतिमयी, वर
दे तू निष्काम॥
बारम्बार प्रणाम,
मैया बारम्बार प्रणाम।
॥ माता
अन्नपूर्णा की जय ॥
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