22 July 2018

एकादशी व्रत कथा | देवशयनी एकादशी व्रत विधि | Devshayani Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi


एकादशी व्रत कथा | देवशयनी एकादशी व्रत विधि | Devshayani Ekadashi 2018 | Ekadashi Vrat in Hindi




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देवशयनी एकादशी क्या है?
वैदिक विधान कहता है की, दशमी को एकाहार, एकादशी में निराहार तथा द्वादशी में एकाहार करना चाहिए। हिंदू पंचांग के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं। किन्तु अधिकमास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है। भगवान को एकादशी तिथि अति प्रिय है चाहे वह कृष्ण पक्ष की हो अथवा शुकल पक्ष की। इसी कारण इस दिन व्रत करने वाले भक्तों पर प्रभु की अपार कृपा सदा बनी रहती है अतः प्रत्येक एकादशियों पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले भगवान विष्णु की पूजा करते हैं तथा व्रत रखते हैं। किन्तु इन सभी एकादशियों में से एक ऐसी एकादशी भी है जिसमें भगवान विष्णु का क्षीरसागर में चार मास की अवधि के लिए शयनकाल प्रारम्भ हो जाता है, अतः आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। देवशयनी एकादशी को पद्मा एकादशी, पद्मनाभा एकादशी, आषाढ़ी एकादशी तथा हरिशयनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान विष्णु योग-निंद्रा मे चले जाते है तथा देवशयनी एकादशी के चार मास के पश्चात भगवान् विष्णु प्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान् विष्णु पुनः जागतें हैं। अतः प्रबोधिनी एकादशी को देवउठनी एकादशी भी कहा जाता है।
कब आती हैं देवशयनी एकादशी?
       देवशयनी एकादशी या हरिशयनी एकादशी का व्रत आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी को किया जाता है। इस समय पर, सूर्य ग्रह मिथुन राशि में आता है। यह एकादशी प्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा के पश्चात आती है तथा अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार देवशयनी एकादशी का व्रत जून अथवा जुलाई के महीने में आता है। देवशयनी एकादशी के दिन से चातुर्मास काल का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं, जिसे योगनिद्रा भी कहा जाता है तथा लगभग चार मास पश्चात तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को  देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास काल कहा गया है। अतः सम्पूर्ण वर्ष में देवशयनी एकादशी से लेकर कार्तिक महीने की शुक्ल एकादशी अर्थात देवउठनी एकादशी तक यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, गृह निर्माण, ग्रहप्रवेश, यज्ञ आदि धर्म कर्म से जुड़े सभी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है।

       देवशयनी एकादशी व्रतफल
       ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष महत्व का वर्णन किया गया है। इस व्रत से मनुष्योकी समस्त मनोकामनाएँ शीघ्र पूर्ण होती हैं। व्रती के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि व्रती चातुर्मास का सच्चे वचन से, विधिपूर्वक पालन करे तो उसे मरणोपरांत मोक्ष प्राप्त होता है।

       पौराणिक शास्त्रो में देवशयनी एकादशी
       भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है। पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से चार मासपर्यन्त पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं।
संस्कृत में धार्मिक ग्रंथो के अनुसार हरि शब्द का प्रयोग सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में किया जाता है। हरिशयन का अर्थ इन चार मास में बादल तथा वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही दर्शाता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आज युग में वैज्ञानिकों ने भी माना है कि, चातुर्मास काल अर्थात मुख्यतः वर्षा ऋतु के समय जल की बहुलता तथा सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्रमाण होने के कारण विविध प्रकार के कीटाणु, जीवाणु  एवं  सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। जो की अति हानिकारक है।
पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है की आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया था। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर सागरमें शयन करते हैं तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु जी द्वारा बलि को दिये गए वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ मास सुतल में निवास करते हैं। विष्णु भगवान देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, महादेव शिवजी महाशिवरात्रि तक तथा ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक भूलोक में निवास करते हैं।

देवशयनी एकादशी व्रत पूजा विधि
एकादशी के दिन को प्रातः ब्रह्ममहूर्त उठें। इसके पश्चात घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो कर स्नान आदि क्रिया करने के पश्चात घर में गंगाजल का छिड़काव करें, जिस से घर पवित्र हो जाए। घर के पूजन स्थल या किसी भी स्थान को पवित्र कर, उस पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे या पीतल की मूर्ति को स्थापित करें। तत्पश्चात भगवानजी का षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके पश्चात भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात एकादसी व्रत की कथा अवश्य सुननी चाहिए। इसके पश्चात आरती कर प्रसाद का वितरण करें। प्रसाद में केला व तुलसी अवश्य रखे। पूजा व कथा की समाप्ती के पश्चात सफेद या पीले चादर से ढँके गद्दे व तकिए वाली चारपाई पर श्री हरी विष्णु को शयन कराना चाहिए।
      
       श्रीविष्णु भगवान को क्या भोग लगायें?
१.          अच्छी वाणी के लिए गुड व मिश्री का भोग लगायें।
२.          दीर्घायु तथा पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए मुंफली तेल का भोग लगायें।
३.          अपने शत्रुओं का नाश करने के लिए कड़वे तेल अर्थात सरसों के तेल का भोग लगाये।
४.          सौभाग्य के लिए मीठे खाद्य तेल का भोग लगायें।
५.          मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पीले पुष्पो का भोग लगावे।
इसके अलावा, व्यक्ति को चातुर्मास के इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि एवं श्रद्धा के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग तथा ग्रहण करना चाहिए, जो की इस प्रकार हैं।

       चातुर्मास में क्या ग्रहण करें?
१.             मनोवांछित वर प्राप्त करने के लिए बर्तन की जगह केले के पत्ते में भोजन करें।
२.             देह शुद्धि या सुंदरता के लिए निश्चित प्रमाण के पंचगव्य का ग्रहण करे।
३.             आत्म शुद्धि के लिए पंचमेवा का सेवन करें।
४.             वंश वृद्धि के लिए नियमित रूप से गाय के दूध का सेवन करे।
५.             सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।
६.             भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए दिन में केवल एक ही बार भोजन करें या उपवास रखें।

       चातुर्मास में क्या त्याग करे?
१.             प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य न करें।
२.             चारपाई पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस-मदिरा सेवन, शहद तथा दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का त्याग करना चाहिए।
३.             मधुर स्वर के लिए गुड़ व मिश्री का त्याग करे।
४.             दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए मोंफली तेल का त्याग करे।
५.             शत्रुनाशादि के लिए सारसो तेल का त्याग करे।
६.             सौभाग्य के लिए मीठे तेल का त्याग करे।
७.             स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करे।
   यह भी ध्यान दे - देवशयन के पश्चात चार महीनों तक योगी व तपस्वी कही भ्रमण नहीं करते तथा एक ही स्थान पर रहकर तप करते रहते है। इस समय में केवल ब्रज-नगर की यात्रा की जा सकती है। क्योंकि चातुर्मास के समय पृथ्वी के सभी तीर्थ ब्रिज-धाम में आकार निवास करते है।

देवशयनी एकादशी व्रत का पारण
       एकादशी के व्रत की समाप्ती करने की विधि को पारण कहते हैं। कोई भी व्रत तब तक पूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसका विधिवत पारण न किया जाए। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के पश्चात पारण किया जाता है।

ध्यान रहे,
१.             एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है।   
२.             यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के पश्चात ही होता है।
३.             द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।
४.             एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए।
५.             व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है।
६.             व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
७.             जो भक्तगण व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत समाप्त करने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती है।
८.             यदि, कुछ कारणों की वजह से जातक प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है, तो उसे मध्यान के पश्चात पारण करना चाहिए।

देवशयनी एकादशी व्रत की पौराणिक कथा
    एक बार ब्रह्मा जी से देवर्षि नारद ने आषाढ़ मास की शुक्ल एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तब ब्रह्मा जी नारद को इस एकादशी की कथा सुनाने लगे। सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। वे अत्यंत ही पुण्यात्मा, धर्मात्मा राजा थे तथा उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।
       उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। उनके राज्य में आसमान से पानी की एक बूंद नहीं बरसी तथा धरती की दरारें बढ़ने लगीं। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
       राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे तथा उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।
       तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
       इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ज्ञान ग्रहण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही होता था तथा अन्य वर्णों विशेषकर शूद्रों के लिये तो यह वर्जित हैं तथा इसे पाप माना जाता हैं। ऋषि कहने लगे राजन आपके शासन में एक शूद्र नियमों का उल्लंघन कर शास्त्र शिक्षा ग्रहण कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह आकाल का अंत नहीं होगा। आकाल शांति उसे मारने से ही संभव है।'
       किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र को केवल शिक्षा ग्रहण करने अपराध पर मृत्युदंड देने के लिए नहीं माना तथा उन्होंने अंगिरा ऋषि से कहा की- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई तथा उपाय बताएँ।' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी के व्रत का विधिवत पालन करो। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी तथा तुम्हारे राज्य में खुशियां पुन: स्थापित होगी। '
       राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए तथा चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई तथा पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।


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